◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
✍️शब्दकार
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
नहीं लगा कक्षा में मन
होती थी बहुत घुटन,
मन ने मन ही मन
किया तब मनन,
कर ही लिया उसने
कुछ बेहतर ही जतन।
कक्षा को छोड़कर
'कच्छा' में घुसपैठ कर ली,
'कच्छाधारी' बनने की
मन में हठ ठान ली,
हर्रा लगा न हींग,
काम बस ठीक ही ठीक,
औऱ 'कच्छा' को
कक्षा से अच्छा
मान लिया,
जीने का सुखी जीवन-सूत्र,
कमर में बाँध लिया,
और क्या!.
अब एक बड़े 'कच्छाधारी' को
अपना गुरु पहचान लिया,
पानी को भले छानो ,
मत छानो,
पर गुरु को अवश्य छानो,
अपने को गुरु से भी
सवा सेर जानो,
सो जान लिया!
औऱ शनैः शनैः
' कच्छे' में प्रवेश -द्वार
खोद लिया,
सिलवाया एक सफ़ेद पायजामा कुर्ता,
कहीं बड़ा उपदेशक
कभी बना ओसामा,
बन बैठा
जनता जनार्दन का,
हितैषी कर्ता-धर्ता,
दुःख -संकट का हर्ता,
अरे भई ! जो मरता
सो क्या कुछ नहीं करता?
धीरे - धीरे
देह के वसन
उतरने लगे,
औऱ हम इंसान से
'कच्छाधारी 'होने लगे,
देह से दिखने में नंगे,
पर घर बैंक की तिजोरी में
हर - हर गंगे!
एक दिन
वह भी आया ,
जब पूरी तरह अपने को
'कच्छा' में पाया।
जलेबी के लच्छे से भी
मधुर होने लगे मेरे बोल,
बोलने लगा कभी
अनतुले, कभी तोल-तोल।
समझ में आ गया
मुझे मेरा रोल,
जाना है 'कच्छा' में
ऊपर की ओर,
तो बदलने ही होंगे
अपने तरीके - तौर,
रातों --रात सब
बदल ही डाले,
खुलने लगे मेरी
किस्मत के
बंद सभी ताले,
कहने लगे
मोहल्ले वाले पड़ौसी
वाह रे किस्मत वाले,
तूने तो रातों - रात
चमत्कार ही कर डाले!
'खाने' - 'पीने 'को
रोज़ गरम- मसाले!
भाग्य ऐसे ही तो
लेता है उछालें!
पहन कर
अच्छा - सा 'कच्छा',
जन सेवक कहलाता हूँ,
आश्वासनों से सबका मन
बहलाता हूँ,
अपने से बड़े अग्रज की
पूँछ सहलाता हूँ।
इसलिए कहता हूँ
छोड़ दो सभी कक्षा ,
इससे है यही अच्छा,
कि नौकर नहीं
मालिक बन जाओ,
पहन लो कोई
अच्छा- सा कोई 'कच्छा ',
मत बने रहो बच्चा,
बन जाओ 'शुभम'
एक देश सेवक सच्चा।
🪴 शुभमस्तु !
०२.०९.२०२१◆११.००आरोहणम मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें