बुधवार, 8 सितंबर 2021

गंगा 🏞️ [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏞️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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गंगा      नहीं       मात्र  सुरसरिता,

सजल    संस्कृति       बहती   है।

'चरैवेति'    का    मंत्र     सदा  वह,

हमसे    निशि - दिन    कहती है।।


माँ        गंगोत्री       पिता  हिमाचल,

के     गृह     से     वह    आती     है।

मैदानों      की       प्यास    बुझाती,

सागर     में    मिल       जाती   है।।

कलकल छलछल कल छल करती,

अपनी     धुन       में      रहती   है।

गंगा      नहीं        मात्र   सुरसरिता,

सजल      संस्कृति       बहती  है।।


प्यासे      पंक्षी,        मानव ,  फसलें,

बाग़ ,    वनों       को      सींच    रही।

भानु -  रश्मियों     को   धारण   कर,

ध्यान     मनुज       का   खींच    रही।

पथ      में       आती      हैं    बाधाएँ,

धरे      मौन      वह      सहती      है।

गंगा       नहीं        मात्र     सुरसरिता,

सजल          संस्कृति       बहती है।।


पानी       नहीं      अमृत   गंगाजल,

कौन      नहीं        जानता     यहाँ।! 

औषधीय     गुण     धारण करता,

जाता      देश    -   विदेश     जहाँ।।

आई      उतर        स्वर्ग   से    गंगा,

निज     आँचल      में    गहती   है।

गंगा      नहीं       मात्र    सुरसरिता ,

सजल       संस्कृति    बहती   है।।


गंगा ,    गाय  ,    कृष्ण     की    गीता,

गायत्री       प्रभु        के     वरदान।

मानव     भूल      नहीं      तुम   जाना,

प्रभु        प्रदत्त       प्रियकर  अहसान।।

सरिता      गंगा       मैया     जन    से,

नहीं    कभी       कुछ      लहती    है।

गंगा          नहीं        मात्र   सुरसरिता,

सजल     संस्कृति         बहती     है।।


नहीं      करें      गंगा     को    मैला,

दूषित     द्रव्य      न     डालें   हम।

अमृत    को      रहने     दें   अमृत,

कहता      अपनी       बात 'शुभम'।।

नंगा     नहीं      नहाएँ     जल    में,

सुरसरि      महिमा      महती    है।

गंगा        नहीं      मात्र   सुरसरिता,

सजल       संस्कृति      बहती   है।।


🪴 शुभमस्तु !


०८.०९.२०२१◆१०.०० आरोहणम मार्तण्डस्य।

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