गुरुवार, 23 सितंबर 2021

गूँगे बोल नहीं पाते हैं!🙉 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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गूँगे    बोल   नहीं    पाते    हैं,

बहरे  भी   कब   सुनते     हैं!

जिनके  दोनों   नयन  नहीं  हैं,

एक    सहारा     चुनते    हैं ।।


अपनी धुन में मस्त  सभी  हैं,

कौन  किसी   की  मान रहा।

जो   मेरा   संदेश   पढ़   रहा,

अज्ञानी    वह   गया  कहा।।

तंतुवाय - से  वे   सब  चादर,

खोए -    खोए     बुनते    हैं।

गूँगे  बोल  नहीं     पाते     हैं,

बहरे  भी   कब   सुनते   हैं!!


उपदेशक,पंडित,  ज्ञानी  भी,

शिक्षक, वैद्य , हक़ीम   खड़े।

नेता ,  दानी , चमचे  भी   हैं,

भरे    भगौने   लिए    अड़े।।

कवियों में दूल्हा वे किसको,

मिलकर    सारे   चुनते   हैं?

गूँगे   बोल   नहीं   पाते    हैं,

बहरे  भी  कब    सुनते   हैं!!


मंचों   पर    चौपालें   लगतीं,

मीन -  मेख      वाहा - वाही!

सीख समीक्षक की भी भारी,

आपस  में     चाहा -  चाही।।

नौसिखिया शरमाते   मन  में,

अपना  ही   सिर   धुनते   हैं।

गूँगे  बोल    नहीं     पाते   हैं,

बहरे  भी  कब    सुनते   हैं!!


कोई   जोकर   जोक  सुनाता,

कोई    ज्ञान    बघार      रहा।

कोई बना चिकित्सक अनपढ़,

साधू    देश    सुधार    नहा।।

रक्त , दाम की माँग  चल रही,

मन ही  मन   जन   घुनते  हैं।

गूँगे    बोल     नहीं   पाते   हैं,

बहरे  भी   कब    सुनते   हैं!!


अपनी -  अपनी   बजा रहे हैं,

ढपली सब स्वर  साज बिना।

नहीं  दूसरे  की   कुछ  सुनते,

रहते   सबसे   सदा    घिना।।

मौन  साधकर  पढ़  तो  लेते,

धागा  एक   न    बुनते     हैं।

गूँगे  बोल     नहीं   पाते   हैं,

बहरे  भी   कब    सुनते  हैं!!


मिलता पानी नहीं अतिथि को

लिए   मोबाइल   घायल - से।

पड़े हुए  सब   यहाँ   वहाँ  वे,

झनक  न  आती   पायल से।।

संक्रामक बीमारी   घर -  घर,

नहीं  किसी  से     रलते    हैं।

गूँगे   बोल   नहीं    पाते    हैं,

बहरे  भी  कब    सुनते    हैं!!


मोबाइल  की  इस डिबिया ने,

ऐसा   जाल     बिछाया    है।

बच्चे  से   लेकर    बूढ़े   तक,

सबको  ही    भरमाया     है।।

चहल -पहल लूटी हर घर की,

सन्नाटे   ही      पलते      हैं।।

गूँगे   बोल   नहीं     पाते   हैं,

बहरे  भी   कब   सुनते    हैं!!


🪴 शुभमस्तु !


२३सितम्बर२०२१◆१२.१५पतनम मार्तण्डस्य।

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