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✍️ शब्दकार ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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आदमी को काष्ठवत
चीर देने वाला मानव ?
नहीं समझता मूल्य
मानव और मानवता का,
पर्याय है जिसका
हर कर्म निर्मम दानवता का,
उससे क्या कोई भी
अपेक्षा शेष है?
मानव के देह में
छिपे हुए
किसी भेड़िया का वेष है!
जीवों का विराट संसार,
जल,थल ,नभ में
जिसका विस्तृत प्रसार,
वनस्पतियाँ पेड़, पौधे, लताएँ,
क्या किसी भी मानव को
कभी भी सताएँ ?
अपनी बुरी करनी से
मानव को कभी तड़पाएँ ?
अपनी किसी करतूत से
मानव अभी तक
नहीं लजाए!
हाय! हाय!! हाय!!!
लेते हैं तरुवर भी आहार,
पीते हैं जल
करता देह में संचार,
साँस भी लेते छोड़ते हैं,
नाराज होते हैं
तो मुख भी मोड़ते हैं,
सोते जागते हैं
हँसते रोते हैं,
मात्र एक वाणी से
वे सभी गूँगे हैं,
मगर नहीं तुम्हारी तरह
आँखों को मूँदे हैं।
पालने से लेकर
श्मशान की भूमि तक,
पेड़ों की लकड़ी के
कृतज्ञ हो तुम,
सुहाग की सेज,
पढ़ने की कुरसी मेज,
खाट पर ठाठ बाट,
कपड़ा या मोटा टाट,
अन्न,दाल, रोटी,
फल, फूल,,सब्जी,
सब कुछ पेड़ों से ,
भैंस ,गाय, बकरी से दूध,
ऊन भी उतारी गई भेड़ों से,
किन्तु सब भुला दिया,
हे मूढ़ मानव!
निज स्वार्थ में क्या किया ?
तू जीते हुए भी
जिया न जिया,
सब बराबर किया!
कटते हुए पेड़ों का
चेहरा उदास है,
मानव ने स्वयं किया
अपना ही सत्यानाश है,
कहीं लंबी -चौड़ी सड़कें,
दस बीस मंजिली इमारतें,
कंक्रीट के घने जंगल,
कैसे हो तुम्हारा मंगल,
अतिवृष्टि कहीं अनावृष्टि,
बिलखती हुई सृष्टि,
ओस चाटने से
नहीं होती तृषा की तुष्टि,
पेड़ों में नहीं
अपने ही पैरों में
कुल्हाड़ी मार रहा है,
बेहतर है यह कहना कि
कुल्हाड़ी में ही पैरों को
दनादन मार रहा है!
स्वयं ही अपने अस्तित्व को
संहार रहा है!
हे 'शुभम'! ये मानव क्यों
हा दैव! हा दैव!!
पुकार रहा है।
🪴 शुभमस्तु !
२९.०९.२०२१◆.२.०० पतनम मार्तण्डस्य।
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