शुक्रवार, 10 सितंबर 2021
गीतोपदेश के हम अनुयायी! 📒 [ व्यंग्य ]
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✍️ व्यंग्यकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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श्रीमद्भगवद्गीता में योग योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' (२.४७) के सुसंदेश का सर्वथा अनुपालन हमारे यहाँ तब से किया जा रहा है ,जब भगवान ने इस धराधाम पर अवतरण भी नहीं किया था।फिर भी उन्हें यह पवित्र संदेश पार्थ के बहाने हम देशवासियों को देना पड़ा।बड़ा अच्छा काम किया। लेकिन मुझे विचार करने पर यह पता चला कि भगवान श्रीकृष्णजी का यह कोई नया शोध नहीं था। आप पूँछेंगे कि कैसे नहीं था नया शोध ? तो इस बात का उत्तर देने के लिए ही तो इस तर्जनी को कुंजी पटल पर घिस रहा हूँ।
अब आप भी मेरी तरह एक बार विचार की चरखी के चक्र को घुमा कर देखें ,तो ज्ञात होगा कि जब से सृष्टि का श्रीगणेश हुआ ,तब से आज तक हमने ,आपने, उन्होंने ,सबने : ही कर्म के फल की चिंता कब की है?बस कर्म करते रहे ।चाहे पराशर ऋषि ने निषाद कन्या मत्स्यगंधा(सत्यवती)के साथ नाव में ही अपने योगबल को एक कोने में रखते हुए दैहिक संबंध स्थापित किया हो!चाहे जगत को माह की उन्तीस अँधेरी रातों में प्रकाशित करने वाले चंद्रमा ने गौतम ऋषि की पत्नी के साथ छद्म रूप में अनैतिकता की हो। चाहे भरी सभा में दुःशासन ने अपनी भाभी द्रौपदी का वस्त्र हरण किया हो। चाहे 'शठे शाठ्यम समाचरेत' के अनुपालन में भीम ने दुर्योधन के साथ गदायुध्द में श्रीकृष्ण के संकेत पर कमर के नीचे प्रहार कर पराजित किया हो। विश्व के इतिहास, महाभारत, पुराणों, रामायण आदि में ही नहीं सारे संसार में अरबों- खरबों उदाहरण ऐसे कर्मों से भरे पड़े हैं, जहाँ कर्म -फल की चिंता किये बिना ही कर्म कर डाले गए। इस प्रकार विश्व का भूत और वर्तमान काल ऐसे नित्य के अरबों कर्मों से धनाढ्य है। औऱ भविष्य में भी दिन में दूनी औऱ रात में चौगुनी दर से सभी कर्म निर्लिप्त भाव से निरंतर गुणात्मक रूप से होते रहेंगे।
मानव ने कर्म के मामले में कभी भी फ़ल की चिंता नहीं की।'जो हो सो हो' - का 'आदर्श - चिन्तन' ही हमारी कर्म - शृंखला का आधार है।जब करना ही है तो सोचना - समझना ही क्या! उस समय विवेक को खूँटी पर टाँग ही देना चाहिए। 'कर्म' करते समय यदि 'विवेक'ने अपनी टाँगें अड़ा दीं , तो आप कर्म- विमुख भी हो सकते हैं। 'कर्म-वैराग्य' हो गया तो औऱ भी मुश्किल की बात होगी।क्योंकि यदि कर्म ही न रहा तो इंसान कैसा? इसलिए निःसंकोच कर्म करते रहें। बिना आगा-पीछा सोचे हुए।
कर्म करने के मार्ग में ये 'सोचना - समझना' सबसे बड़ा गतिरोधक (स्पीड ब्रेकर ) है।इस 'सोच-समझ' से मुक्ति पाकर ही आप कोई भी 'कर्म' बेधड़क कर सकते हैं। जैसे चोर, डकैत, राहजन, ग़बनकर्ता, उत्कोच -प्रेमी, देश के लुटेरे (अब मैं ये क्यों बताऊँ कि 'वो' कौन कौन हैं, और कौन दुग्ध -स्नात औऱ दुग्ध-धवल हैं?), अपहर्ता, बलात्कारी , जार, लाचार, व्यभिचारी, मिलावटखोर, कमीशनखोर, आतंकी आदि आदि; ये सभी कर्म फ़ल की तृण मात्र भी चिंता नहीं करते। 'रेलवे आपकी सम्पति है' ,इस सिद्धांत के अनुयायी पूरे देश को ही अपना मानते हैं ।जिसकी गुल्ली जितनी दूर तक जा सकती है , उसे फेंकता है और अपना कर्म करने में तल्लीन रहता है।किसी की सीमा मोहल्ले भर की है ,तो किसी की कस्बे भर की। कोई ट्रेनों ,सड़क , बसों, हवाई जहाजों में दौड़ - दौड़ कर कर्म का उत्तरदायित्व पूरा करता है।तो किसी की सीमा अपनी दुकान, कार्यालय या शोरूम तक ही है। सबके क्षेत्र बँटे हुए हैं। इसलिए कोई टकराव नहीं है। सब मिल- जुल कर अपने-अपने कर्तव्य का भार उठाए हुए हैं।
अब आप हैं कि आपने कर्मों का भी अपनी तरह से जाति और वर्ण विभाजन कर दिया है ।कर्म में भला - बुरा क्या ? कर्म को मात्र कर्म ही रहने दीजिए न! कसाई को ये बता दें कि गाय पूर्व दिशा में गई है, यद्यपि वह पश्चिम में गई हो, तो झूठ भी पुण्य है। क्योंकि आपने झुठ बोल कर एक जीव की हत्या होने से बचा लिया। इसके विपरीत बोलने पर आपका सत्य भी पाप की श्रेणी में आ जाता। यहाँ पर पाप पुण्य की परिभाषा भी बदल जाती है। सब कुछ सापेक्षिक हुआ न? युद्ध भूमि में किसी शत्रु को मारना पाप नहीं है ,क्योंकि वहाँ देश की रक्षा की बात है। वहाँ मरने वाला मरता नहीं ,शहीद होता है ,बलिदानी होता है ,जिस पर पूरा देश गर्व करता है। सब कुछ देश ,काल और परिस्थिति की सापेक्षिकता पर निर्भर है। इसलिए बेधड़क कर्म किए जाओ: 'कर्म किए जा फ़ल की इच्छा मत कर ओ इंसान। ये है गीता का ज्ञान, ये है गीता का ज्ञान।'
🪴 शुभमस्तु !
१०.०९.२०२१ १२.४५ पतनम मार्तण्डस्य
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