गुरुवार, 30 सितंबर 2021

तराजू ⚖️ [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार  ©

⚖️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अपने - अपने हाथों में

लिए खड़े हैं सब तराजू,

अपनी - अपनी  तराजू,

किसी  का  कोई  मेल  नहीं,

 सबने ही समझ रखा है

कोई मजेदार खेल यही,

बटखरे भी सबके 

अलग हैं,

अपने - अपने बटखरे,

जैसे मानव नहीं  हैं वे

लगते हैं  मसखरे! 


तराजू भी अलग

बटखरे भी अलग,

सबके मात्रा मानक भी

दूसरों से सर्वथा अलग,

कोई किसी की नहीं मानता,

यद्यपि स्वयं  भी कुछ      

नहीं जानता,

आने पर समय

अपनी ही तानता,

समझना छोड़कर

तकरार ठानता,

बटखरे जो मेल नहीं खाते,

स्वीकार कैसे करें

अपने अहं से 

नीचे नहीं उतर पाते,

इसलिए शाश्वत सत्य में भी

अपनी ही चलाते।


नई  और पुरानी पीढ़ी का

चला आया अंतराल,

कब कौन भर सका है,

इसीलिए बाप से जना बेटा

बाप का भी बाप 

बनता देखा है:

'तुम नहीं जानते,

जो हमने जाना है,

बापू ये तुम्हारा नहीं

हमारा जमाना है।

छोड़ भी दो न!

अब वे सब पुरानी 

दकियानूसी बातें,

अब न वे दिन रहे

न रहीं वे रातें,

हमारी तराजू अब

लोहे के बटखरों की नहीं है,

ये डिजीटल युग है,

इसकीअलग ही है कहानी 

तुम में 'अकल' नहीं है!'


सुनकर  हर बाप

बेटे का व्याख्यान,

नहीं बाँचता अपना पुरान,

मौन रह रहकर सुनता है,

मन ही मन हँसता है,

अपना ही सिर धुनता है,

नैतिकता, आदर्श ,मनुष्यता

सब किताबी बातें हैं,

जैसे भी  हो 

अपना उल्लू सीधा,

नए युग की सौगातें हैं,

मात्र दो दशकों में

नई पीढ़ी ने जो जाना है,

सात दशकों के बाद 

इन्हें लगता फटा-पुराना है,

हमारी ही औलाद 

हमारे  परदादा नाना हैं।


रिफाइंड,रासायनिकों से

बने नए दिमाग़,

नवेलियों के सुहाग,

करते जा रहे

घरों के विभाग,

बटखरे जो डिजिटल हैं,

ये इंसान नहीं

 रोबोटिक कल हैं,

सोच - सोच कर 'शुभम'

पीढ़ी पुरानी ,

सिर धुन रही है,

जहाँ भी देखो 

उलटी गंगा बह रही है।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०९.२०२१◆९.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।


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