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✍️ शब्दकार ©
✴️ डॉ. भगवत स्वरूप शुभम
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सच से सच की
रार ठनी है,
युग -युग से ही
तनातनी है,
शूल भयंकर
नागफनी के,
निर्णय कैसे
हो पाएगा!
झूठों का दरबार।
कीट, हिंस्र पशु
हुआ आदमी,
गीता ,वेद ,
रामायण फ़िर भी,
राम नहीं
न बना कृष्ण ही,
सीता ,सावित्री
नहीं बन पाई कोई नार,
गई मनुजता हार।
गली - गली उपदेशक ज्ञानी,
धारण कर तलवार ,
काटने को मानव को
बैठे हैं तैयार,
कौन शेर है चीता
फाड़ चीर कर
खाने में होशियार,
शिकंजे अपने फैलाते,
बंद चेतना के हैं
सारे द्वार।
छद्मता का रँग गहरा,
तानाशाही आतंकों का
जन पर पहरा,
शासक आँखों से अंधा
करता गहन प्रहार,
नहीं आते अब तारण को
कृष्ण मुरारि।
अंधों के पीछे
अंधों की भीड़,
तोड़ रही नित
लोकतंत्र की रीढ़,
संविधान का नित
हो रहा पूर्ण बहिष्कार,
मनमाने क़ानून ,
ऊन की दून,
बहाते मानव का खून,
सभ्यता संस्कृति
होती है नित क्षार।
तथाकथित उद्धारक
बन बैठा मानव का संहारक,
स्वयंभू भगवान!
षड्यंत्रों का योजक
सब कुछ प्रायोजित
नित - नित ,
अंधों का जन-जन के प्रति
अंधेपन का दत्त उपहार,
'शुभम' देश की
हालत सब बदहाल।
🪴 शुभमस्तु !
०९.०९.२०२१◆१.००
पतनम मार्तण्डस्य।
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