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✍️ व्यंग्यकार ©
🏕️ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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'कच्छा' हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।यही हमारे जीवन का आधार है।यही हमारे वर्चस्व का सार है। प्रकृति हर कार्य के लिए अलग - अलग जीवों को अस्तित्व में लाई है।'जो आया जेहि काज सों तासे और न होय 'की प्रसिद्ध उक्ति के अनुसार हमें 'कच्छा' धारण हेतु ही इस धरा धाम पर लाया गया है।
जब 'कच्छे' की बात चली है ,तो इसकी विशेषताओं से भी अवगत होना हमारा आपका धर्म बनता है।'कच्छा' एक ऐसा सशक्त आवरण है, जो हमारे अस्तित्व का बोधक तो है ही , वह हमारा जीवन - रक्षक भी है। यद्यपि हम ऊपर से नीचे तक पूर्णरूपेण निर्वसन/निर्वसना ही हैं, पर इस 'कच्छे' के बिना हमारे अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सारा समाज,सारा देश जानता है कि हम कैसे हैं। इस 'कच्छे' की महिमा ही कुछ ऐसी है कि हम सामान्य मानव से इतर हो गए हैं। यद्यपि हमारे सामने हमें सब लोग सम्मान देते हैं, भारी -भारी पुष्प हारों से लाद देते हैं।कहते हैं न कि मतलब के लिए गधे को भी बाप जी कहना पड़ता है।इसी प्रकार हमारा दर्जा मतलब पड़ने पर कुछ और ही सुपर हो जाता है, यदि बाप से भी बड़ी और सम्माननीय कोई हस्ती हो तो उससे भी एक किलोमीटर ऊपर हमें आसीन किया जाता है। पर हाय रे !जमाने ,मतलब निकलने के बाद कोई गधे के बराबर भी घास नहीं डालता। पूरी तरह भुला देता है।
यहाँ पर अपनी विशेषताओं के साथ -साथ अपनी कुछ कमियाँ भी गिना देना भी उचित ही होगा।बेपेंदी के लोटे की तरह इधर -उधर लुढ़कना हमारा विशेष गुण है। अब कोई इसे गुण कहे अथवा अवगुण । भाइयो और बहनो ! अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए सब कुछ करना पड़ता है। करना भी चाहिए। हम भी यदि कुछ ऐसा-वैसा करते हैं ,तो यह कोई बुरी बात नहीं है । कभी -कभी अपनी औक़ात से नीचे भी पतित होना पड़ता है ।हम गिर -गिर कर उठने वाली उस चींटी से प्रेरणा लेकर ही तो अपने 'कच्छापन' को पक्का बनाते हैं।
हमें हमेशा इस बात का ख़तरा बना रहता है कि कब कौन हमारे ' कच्छे' को न खींच दे। जब हम 'कच्छे 'से ही बाहर हो गए तो फिर क्या बचा रह गया? ऐसा भी नहीं है कि हम दूसरों के 'कच्छे' खींचने में प्रयत्नशील नहीं रहते ,अवश्य रहते हैं और सदैव रहते हैं । अब करें भी क्या अपने 'कच्छे' बचाने के लिए अन्य 'कच्छे'/ 'कच्छियों' को खींच लेने का तरीका ढूंढ़ना ही पड़ता है।
आपको विदित होगा कि काव्य में 'कच्छे' का तुकांत अच्छे होता है। तो इसमें तो कोई शक नहीं है कि 'कच्छे धारी' भी अच्छे होते होंगे। कविगण 'कच्छे' की तुक 'अच्छे' से लगाते हैं । 'कच्छेधारी ' में एक विशेष गुण यह भी है कि वे भाषण भी हमेशा लच्छेदार ही देते हैं। जिनके भाषण में जितने अधिक लच्छे हों, वे जलेबी की तरह उतना ही रस प्रदान करते हैं।अगर जलेबी सीधी होती ,तो उतना रस नहीं देती ।प्लास्टिक के पाइप की तरह लगती। अब उसमें लच्छे भी हैं,वे भी रस भरे ,तो उसका आनंद कई गुणा बढ़ जाता है।
इसी प्रकार लच्छेदार भाषण से किसी को भी मूर्ख बनाया जा सकता है।यही तो वह ख़ासियत है जो हर आम और ख़ास में नहीं है। इसका चमत्कार चुनाव के समय देखा और जाना जा सकता है।बल्कि कहना यह चाहिए कि हमारे ये रसीले लच्छे ही हमें 'कच्छेधारी ' बना देते हैं। और चींटी को भी पर्वत पर आसीन करा देते हैं।निन्दारस की चाशनी में डूबे हुए हमारे 'लच्छे' हमें रँग- रँगीले,भड़कीले, नीले, पीले 'कच्छे' पहना ही डालते हैं।
'कच्छाधारी' हम बड़े,हमसे देश महान।
हमीं देश की शान हैं,हमीं देश की जान।।
मधुर जलेबी - से बड़े, लच्छे आते काम।
जीवन भर सुख से रहें, दस पीढ़ी आराम।।
'कच्छे' का आनंद जो,पाता पहली बार।
पीछे वह हटता नहीं, सदा गले में हार।।
'कच्छे' में गुण बहुत हैं,खतरे भी दो चार।
सदा सँभल कर ही रहें, वरना बंटाधार।।
ढँकता असली नग्नता, 'कच्छा' समझें मीत।
बदल-बदल रँग पहनिए,होगी ही तव जीत।।
बोलो 'कच्छाधारियों' की जय! 🪴
शुभमस्तु !
०१.०९.२०२१◆८.०० आरोहणम मार्तण्डस्य।
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