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✍️ शब्दकार ©
🌇 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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चार दशक से
शरण शहर की
पाई मैंने, दूर गाँव से
अटका भटका,
मेरे भीतर शहर बस गया।
माँ मथती थी छाछ सवेरे,
हड़-छड़ की आवाजें आतीं,
धोए बिन मुखड़ा मैं अपना,
बाहर आता मातु बुलातीं,
चला रही माँ दही - मथानी,
डाल गरम थोड़ा - सा पानी,
मन में मेरे चित्र ठुस गया,
मेरे भीतर शहर बस गया।
उठकर आता हाथ पसारे
मुँह में मेरे पानी आता,
माँ मेरे कर रखती लौनी,
चाट जीभ से चट कर जाता,
नहीं लाड़ का कोई सानी,
माँ की थी लौनी -सी बानी,
कहाँ निचुड़ वह आज रस गया,
मेरे भीतर शहर बस गया।
अब मशीन-सी खटखट ऐसी,
सुई घड़ी की मुझे चलाती,
फिर भी कभी-कभी माँ तेरी,
याद मधुरतम मुझे सताती,
टपक रहे वे छप्पर -छानी,
बात हो गई बड़ी पुरानी,
माँ का कभी न 'शुभम्'जस गया,
मेरे भीतर शहर बस गया।
🪴 शुभमस्तु !
०४.०६.२०२२ जून २०२२◆८.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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