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✍️ शब्दकार ©
🎖️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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गहराई में उतरा जो
क्या कभी
रिक्त हस्त लौटा?
मिले हैं उसे सदा
शंख, सीप, घोंघा,
यदि रहा उसका
प्रयास और भी गहन
तो उसे मिले हैं मुक्ता।
सागर के किनारे पर
पड़े रहने वाले
बहाने में मस्त बहने वाले
चाहते रहे
बिना परिश्रम के ही
गरम मसाले,
समय के साँचे में
जिसने भी
अपने तन मन
कदम ढाले,
मिले हैं उन्हें
परिणाम भी निराले।
जो चलता है
वही गंतव्य पर भी
जा पहुँचता है,
चलते रहने का नाम
जीवन है,
उन्हीं के लिए
ये जिंदगी उपवन है,
अन्यथा बेतरतीब
बिखरा हुआ वन है।
स्वयं स्वत:
निर्माण के लिए है,
प्रकृति प्रदत्त ये देह,
बरसाएं इसकी धरा पर
अपने ही स्वेद का मेह,
बना पाएंगे तभी
मानव जीवन को
निस्संदेह सु -गेह,
परिजन औऱ पुरजन
करने लगेंगे
स्वतः तुम्हें नेह।
वैशाखियों से कौन
कब तक चला है,
बना है जो परजीवी
उसने अपने को
निरंतर छला है,
निज स्वेद का मूल्य
पहचानें,
तभी अपने भावी को
वर्तमान को
'शुभम्' मानें।
🪴 शुभमस्तु !
२४ जून २०२२ ◆५.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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