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✍️ शब्दकार ©
🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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कर्म-वृक्ष की शाख पर,लगते फल अनमोल।
सदभावों से सींचिए,मिलते हैं अनतोल।।
देख दूसरे वृक्ष पर, फल मीठे रंगीन।
ललचाओ मत मानवो, होना कर्म प्रवीन।।
परजीवी बनकर रहे,चूसे पर धन खून।
जीवन में खिलना नहीं,उसका भाग्य प्रसून।।
समय कभी रुकता नहीं,भोर दुपहरी शाम।
प्राची में सूरज उगे,करता जगत प्रनाम।।
जगत चाल को देखके,सबक लीजिए सीख।
धोखा मत देना कभी,सदा तुम्हारी जीत।।
रात गई तम है विदा,आई मधुरिम भोर।
नई आस ले जाग तू, करें पखेरू शोर।।
सघन अपेक्षा ही बड़ी,दुख का कारण एक।
व्यर्थ बोझ सिर ढो रहा, खो तू स्वयं विवेक।।
नाच रहीं गोधूम की, बालीं ले हिलकोर।
चिड़ियाँ चहकी पेड़ पर,देख सुनहरी भोर।।
कुहू-कुहू कोकिल कहे,बोल मधुर नित बोल।
भाषा ललित सुहावनी,हृदय- तराजू तोल।।
बीता आतप जेठ का,छाए घन घनघोर।
पावस ऋतु सरसा रही, सुखद सुहानी भोर।
प्यासी धरती ने दिया ,आँचल अपना खोल।
बरसो मेघा जोर से, पानी दो अनमोल।।
शीतल मन की चाँदनी, देती सुखद प्रकाश।
सोच समझ कर जो चले,होता नहीं निराश।
अहंकार के शीश पर,बैठा सदा विनाश।
गिरता पल भर में धरा,महल बना जो ताश।।
पावस के घन शून्य में,घिर आए चहुँ ओर।
शीतल बही बयार नम,खेलें बाल किशोर।।
नवल दोंगरे ने किए,हर्षित खेत किसान।
आशाएं जगने लगीं, होता सुखद विहान।।
🪴शुभमस्तु !
१६ जून २०२२◆११.००आ आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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