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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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अधरों पर जिनके ताले हैं।
उनसे कुछ कहने वाले हैं।।
मन की मन में ही क्यों रखते,
फोड़ें जो मन के छाले हैं।
भीतर - भीतर जो चिनगारी,
शोले क्यों तुमने पाले हैं।
मेरी सुन अपनी भी कह लें,
हटा अँधेरों के जाले हैं।
आँगन की दीवार हटाएँ,
हम तो मन के मतवाले हैं।
तानाशाही पुतिनों जैसी,
उचित नहीं प्रभु रखवाले हैं।
कौन मरा - जीता स्वेच्छा से,
बनते क्यों जन के घाले हैं।
मौसम सदा बदलते रहते,
सदा नहीं बादल काले हैं।
'शुभम्'नहीं मालिक तुम सबके,
लौटा लो अपने भाले हैं।
🪴 शुभमस्तु !
०४ जून २०२२◆६.३०
पतनम मार्तण्डस्य।
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