गुरुवार, 23 जून 2022

प्रशंसा' की झील में मेरा उतरना! 🌌 [ व्यंग्य ]


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✍️ व्यंग्यकार © 

🌌 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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     महात्मा कबीरदास की एक प्रसिद्ध साखी है :'जिनु खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ। हों बौरी ढूंढ़न गई,रही किनारे बैठ।।' समुद्र की गहराई में अनेक तैराक लोग डुबकी लगाते हैं ;किंतु किसी के हाथ में मोती आते हैं तो किसी को केवल शंख,सीप, घोंघा के पाने भर से ही संतुष्ट होना पड़ता है।आध्यात्मिक भाव से इस दोहे का भाव ग्रहण करने पर मोती, मुक्ता अर्थात मुक्ति (मोक्ष) हो जाता है औऱ शंख ,सीप औऱ घोंघा संसार की अन्य सामान्य वस्तुओं के रूप में मान्य किया जाता है। यह तो हुईं सागर और भव- सागर की बातें । अब अपने मंतव्य की असली बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

          किसी सागर विशेष में तो नहीं ;एक छोटी - सी झील की गहराई में अवगाहन करने का प्रयास इस अकिंचन ने भी किया। उसने जो कुछ भी प्राप्त किया ,उन्हें सुनकर आप चौंक अवश्य जाएँगे।प्रशंसा एक ऐसी गहरी औऱ विलक्षण झील है कि इसमें जितना नीचे जाएंगे ,उतने ही मोती भी भरझोली ले आएंगे ।मुझे भी मिले।जिन्हें आपको दिखाना चाहता हूँ। जब मैंने देखे हैं तो आप भी दर्शन- लाभ करें। 

        ये संसार सच से अधिक झूठ से संतुष्ट रहता है। यदि झूठ और सच दोनों में से एक को चुनना हो ,तो उसके चयन की प्रथम वरीयता झूठ की होती है। भले ही उसके कारण उसे कष्ट उठाना पड़े, संकट में पड़ना पड़े, जेल भी जाना पड़े; किन्तु पहले वह सच को नहीं ;झूठ को ही चुनेगा।कोई भी किसी की प्रशंसा कर रहा हो ;उसमें आधे से अधिक झूठ की पॉलिश, चमक- दमक, गमक,महक, लहक,चहक होती ही है। और अनिवार्य रूप से होती है। अब चाहे वह क्रीम ,पाउडर, साबुन ,मंजन ,लिपस्टिक, मंजन, टूथ पेस्ट, कॉस्मेटिक्स आभूषण, वस्त्र आदि का विज्ञापन हो अथवा किन्हीं नेताजी के गुणों का गायन। चाहे किसी वर की तलाश में मध्यस्थ द्वारा किसी लड़के को लड़की वालों द्वारा दिखवाया जा रहा हो अथवा किसी लड़की को विवाह हेतु उसका गुणगान किया जा रहा हो।

                   'प्रशंसा' से खून बढ़ता है।खून का दौरा भी तेज होता है।आदमी फूल कर यों कुप्पा हो जाता है ,जैसे रबर के पिचके हुए ट्यूब में हवा भर दी गई हो।   इस   प्रशंसा   ने  आदमी  के बड़े -बड़े काम  किए हैं।  उन्हें  मूर्ख   से महापंडित,महाज्ञानी सिद्ध किया है। भले ही कुछ ही देर के लिए हो। पर इससे असंभव भी संभव होते हुए देखा गया है।कालिदास और विद्योत्तमा का उदाहरण हम सबके समक्ष है।पंडितों द्वारा की गई झूठी प्रशंसा ने एक मूर्ख औऱ जड़बुद्धि को विद्वान सिद्ध करते हुए विदुषी विद्योत्तमा से परिणय करवा दिया। यह चमत्कार प्रशंसा का ही था।

        दुनिया के किसी भी विज्ञापन में झूठी प्रशंसा के अतिरिक्त होता ही क्या है! बड़े -बड़े साँचाधारी करोड़ों में उन झूठे विज्ञापनों को करके नित्य की अपनी रोटी उपार्जित कर रहे हैं औऱ सब कुछ जानती हुई 'समझदार' जनता को मूर्खता की चाशनी से माधुर्य प्रदान कर रहे हैं।कौन नहीं जानता कि संसार की किसी भी गोरा बनाने वाली क्रीम से कोई गोरा नहीं हो सकता।फिर भी जानबूझकर मूर्ख बनना आदमी की हॉबी है।यदि ऐसा होता तो भारत भूमि समस्त भैंसवर्ण के नारी- नर, युवा प्रौढ़ ; दूध जैसे गोरे चिट्टे हो जाते! अफ्रीका में एक भी हब्शी श्याम तवावर्ण नहीं मिलता ।गोरा बनाने वाली क्रीम जो है न ! विज्ञापन रूपी प्रशंसा की यही खास बात है ,कि वह बुद्धिमानों की बुद्धि पर भी कलई पोत देती है।

            कौन नहीं जानता कि नेता न सच बोलता है औऱ न सच के आसपास भी फटकता है।किंतु आम जनता को ऐसी चटनी चटवाता है कि उसके सफेद झूठ को भी वह गाय, गंगा औऱ गायत्री जैसा पवित्र मानकर उसे वही करने देती है ,जो नहीं करने देना चाहिए। मतमंगे औऱ उनके आगे पीछे चलने वाले भेड़ छाप अनुगामी चमचे अंततः उनके झूठे विज्ञापन ही तो हैं। उनके प्रशंसक ही तो हैं। उनकी प्रशंसा में चार चांद लगाने का उनका महान दायित्व नेता को कहाँ से कहाँ पहुँचा देता है। जगह- जगह चौराहों पर किये जाने वाले उनके भाषण में भला झूठ के अतिरिक्त होता भी क्या है। कहना यह चाहिए कि राजनीति की नींव ही झूठ और झूठी प्रशंसा पर रखी गई है।

              साहित्यिक क्षेत्र में भी झूठी प्रशंसा का बोलबाला है। यदि किसी कवि की झूठी प्रशंसा कर दी जाए तो वह अपने को वाल्मीकि का अवतार समझने लगता है।किसी कवि को गिराने औऱ उठाने में समीक्षक की प्रंशसा की अहम भूमिका होती है।समीक्षक द्वारा किसी रचनाकार को उत्साहित अथवा हतोत्साहित करना उसके नित्य का बाएँ हाथ का खेल है।कोई समीक्षक किसी कवि के भविष्य को चौपट भी कर सकता है औऱ प्रशंसा के तिल का ताड़ बनाकर उसे हिमालय के उच्च शिखर पर भी आसीन करा सकता है। कोई समीक्षक किसी की समीक्षा में एक - दो शब्द की औपचारिक टिप्पणी करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है तो किसी के लिए पूरी स्तुति - गायन करते हुए उसका चरणोदक पान करते हुए धन्य हो जाता है। यदि रचनाकार नारी है ,सुंदर भी है औऱ युवा भी है ,सुभाषिणी भी है ;तब तो कहना ही क्या है ! ताश के पुल पर पुल बनते चले जाते हैं।उसे साक्षात सरस्वती के उच्च आसन पर अधिष्ठित करना अनिवार्य ही हो जाता है।उसे संसार की अनेक दुर्लभ उपमाओं से सुसज्जित किया जाता है।यह सब समीक्षकों की प्रशंसा का ही चमत्कार है ,प्रतिफल है।

          इस देश में जिस व्यक्ति का अपना कोई चरित्र नहीं, ऐसे 'महापुरुष' ही नौकरी, शिक्षण संस्थान में प्रवेश के लिए आचरण औऱ चरित्र की उज्ज्वलता का प्रमाणपत्र देते हुए देखे जाते हैं।यहाँ पर चरित्र का अर्थ मात्र स्त्री पुरुष के जैविक सम्बन्धों की नियम विरुद्धता से ही लिया जाता है। उसके चोरी, गबन, रिश्वत खोरी, भृष्टाचारी आदि पहलुओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। हर पति के लिए उसकी पत्नी और पत्नी के लिए उसका पति सर्वाधिक चरित्रहीन होते हैं। फिर सारे जगत की क्या कहिए कि कौन कितना चरित्रवान है! वह क्या स्पष्टीकरण देगा अपने को चरित्रवान कहलवाने का? 

             वस्तुतः प्रशंसा बहुमुखी ,बहु आयामी, सकारात्मक भी ,नकारात्मक भी, पूरब भी पच्छिम भी ,उत्तर भी ,दक्षिण भी,आज भी ,कल भी अर्थात बहुत कुछ है। प्रशंसा पर संसार का सारा विज्ञापन जगत, विवाह जगत,नेता जगत, नर-नारी जगत और सहस्र फण धारी नाग की तरह सारी पृथ्वी टिकी हुई है। यदि प्रशंसा न होती तो बहुत सारे नर नारी कुँवारे ही रह जाते। विज्ञापन ही जिनकी जान है ,ऐसे धंधे ,उद्योग ,कल,कारखाने बंद नहीं होते ,खुल ही नहीं पाते। अकवि को कवि औऱ कवि को अकवि बनाने में प्रशंसा की अहम भूमिका है। यदि आपको भी उच्च कोटि का कवि बनना है तो कुछ समीक्षकों को मक्खन लगाइए अर्थात .....। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 २३ जून २०२२ ◆ ५.४५ पतनम मार्तण्डस्य। 

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