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✍️ शब्दकार ©
🍼 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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दोहनी में पानी
पहले से ही
दुह लिया दूध उसी में,
दूध, अब दूध नहीं है।
पानी पीकर भैंस
दे रही है पानी,
चुने हुए वक्तव्य
देख सुन मरती नानी,
मन में बैठा चोर,
संध्या हो या भोर,
भैंस में दूध नहीं है।
हया शर्म मानव ने
हँड़िया धो पी डाली,
अगर न हो विश्वास
झाँक कर देखें नाली,
कुछ पुण्य न मानें पाप,
करते मंदिर में जाप,
गाँव में दूध नहीं है।
मिला रसायन तेल
दूध बनता घर - घर में,
भर - भर टंकी केन
बाँटते नित्य नगर में,
मर चुके चरित के पेड़,
करें क्या गायें भैंसें भेड़,
शुद्ध अब दूध नहीं है।
हवस पैसे की ऐसी
खून अपनों का पीते,
छापती नोट मिलावट
अस्पतालों में रीते,
कैसा विचित्र अंधेर!
न मिटते लगती देर!
दूध में दूध नहीं है।
🪴 शुभमस्तु !
०५ जून २०२२ ◆७.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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