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✍️ शब्दकार ©
🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्म'
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बरसे पावस के घन प्यारे।
दिखते नहीं गगन में तारे।।
टपक रहे हैं छप्पर , छानी।
बरस रहा है शीतल पानी।।
औलाती से टिप -टिप झरता।
वर्षा-जल भूतल पर भरता।।
गिरती धार हाथ से छूकर।
छिटक गई है गीली भूपर।।
सस्वर बूँदें गीत सुनातीं।
कानों को वे अतिशय भातीं।।
हैं प्रसन्न सारे नर - नारी।
जल थलचर खग प्रमुदित भारी।
आओ हम सब मोद मनाएँ।
रवि-आतप अब क्या कर पाएँ
बैठे हम छप्पर के नीचे।
बिछा खाट निज आँखें मीचे।
छिटक-छिटक कर बूँदें आतीं।
तन मन वसन भिगोकर जातीं।।
'शुभम्' सुहाती नम औलाती।
भूरे घन पावस बरसाती।।
🪴शुभमस्तु !
२१ जून २०२२◆११.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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