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✍️ शब्दकार ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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देवासुर संग्राम का, युग- युग अत्याचार।
शांति-हनन करता रहा,असुरों का हर वार।।
देवों ने छोड़े नहीं, धर्म, नीति, सत्कर्म,
असुर समझते देवदल, है दुर्बल लाचार।
पत्थर , ईंटें फेंक कर, छेड़ रहे संग्राम,
आगजनी विध्वंश का , नहीं टूटता तार,
नीति, नियम,कानून की,उड़ा धज्जियाँ मूढ़,
चाह रहे वर्चस्व जो,उठा हाथ हथियार।
शांतिदूत के नाम का,उड़ा नित्य उपहास,
मियाँ मिट्ठुओं का तना,तंबू बीच बजार।
सुर-गण की जानी नहीं, शक्ति उड़ा उपहास,
रक्त -पिपासा बढ़ रही,दिखे न तीर, कटार।
मानवता उर से मिटी, दानवता का शूल,
नित्य सालता ही रहा, तृण भर नहीं उदार।
गीदड़ के दिन आ गए,भाग रहा उस ओर,
महाकाल आगे खड़ा,करता नहीं विचार।
🪴 शुभमस्तु !
११ जून २०२२◆७.३० पतनम मार्तण्डस्य।
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