बुधवार, 8 जून 2022

बरसे स्वेद अबाध ☀️ [ दोहा ]

 

[पसीना,जेठ,अग्नि,ज्वाला,आतप]

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️शब्दकार ©

☀️ डॉ भगवत स्वरूप 'शुभम्'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆ ◆■◆■

       🪸  सब में एक  🪸

बहे पसीना देह से,   आतप   जेठ  अषाढ़।

श्रम-जल के लावण्य में, उर- संतोष प्रगाढ़।।

देतीं    सुख  वे   रोटियाँ, बहे पसीना   देह।

पत्नी  बोले   प्रेम से, परिजन का  हो   नेह।।


जेठ मास  तपने लगा, प्यासी प्यास उदास।

हृदय  धरा का फट  रहा, सूख रही है घास।।

तप्त   हवाएँ   लू बनी, रूखा जेठ   कठोर।

पंछी   प्यासे   मर  रहे, मौन हुए  वन मोर।।


पाँच  तत्त्व में अग्नि का,देव  रूप  है  मीत।

भीतर  - बाहर  देह  के,गाता जीवन -गीत।।

प्रेम - अग्नि में जो तपा, कंचन बना विशुद्ध।

अपने को जो होम दे,त्यागी मनुज   प्रबुद्ध।।


सदा न ज्वाला दीखती, नयनों से अभिराम।

हवन - यज्ञ में सोहती, पावनता  का  काम।।

जठरानल ज्वाला नहीं,दृश्य नयन से मीत।

उदराशय  में  भासती,उष्ण न होती  शीत।।


पूस माघ आतप बड़ा, लगता सुखद अपार।

वही  जेठ   में  ताप  दे ,तपते देह    कपार।।

आतप देखा जेठ का,कर घूँघट - पट ओट।

बाला पथ पर जा रही,देखे बड़ा  न    छोट।।


    🪸  एक में सब  🪸

जेठ अग्नि - ज्वाला बड़ी,

                          आतप   देता   शूल।

बहे पसीना - धार भी,

                         चिपका  देह  दुकूल।।


🪴 शुभमस्तु !


०७ जून २०२२◆१०.३०पतनम मार्तण्डस्य।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...