शनिवार, 25 जून 2022

देह अथवा देही! 🪷🪷 [ गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मात्र       देह     मैं      या     हूँ        देही।

यद्यपि     हूँ   बस     तन    का     नेही।।


जिसको      कहता     हूँ   मैं   'मैं'      'मैं',

रहता      बन      कर     तन    में    मेही।


साधु ,     संत ,    सु - विशेष  मनुज   हो,

रह      जाता      जग       में   बन    गेही।


प्रति       क्षण    बहती    जीवन - सरिता,

मन         ही        मानव       तेरा   खेही।


रविकर      से     क्यों      भय खाता    है,

आजीवन                    रहता    तमगेही।


वसन     रँगे      मन      रँगा    न      कोई,

कितने          हुए          विदेह    विदेही ?


'शुभम्'        जान        देही   नर    अपनी,

दूर      हटा       तम      उर   का      तेही।


देही =आत्मा।

नेही=प्रेमी।

मेही=महीन, सूक्ष्म।

गेही=गृहस्थ।

खेही =नाविक।

तमगेही=तम रूपी घर का वासी।

विदेही= देह रहित।

तेही=क्रोधी।


🪴शुभमस्तु !


२५ जून २०२२◆८.०० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

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