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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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मात्र देह मैं या हूँ देही।
यद्यपि हूँ बस तन का नेही।।
जिसको कहता हूँ मैं 'मैं' 'मैं',
रहता बन कर तन में मेही।
साधु , संत , सु - विशेष मनुज हो,
रह जाता जग में बन गेही।
प्रति क्षण बहती जीवन - सरिता,
मन ही मानव तेरा खेही।
रविकर से क्यों भय खाता है,
आजीवन रहता तमगेही।
वसन रँगे मन रँगा न कोई,
कितने हुए विदेह विदेही ?
'शुभम्' जान देही नर अपनी,
दूर हटा तम उर का तेही।
देही =आत्मा।
नेही=प्रेमी।
मेही=महीन, सूक्ष्म।
गेही=गृहस्थ।
खेही =नाविक।
तमगेही=तम रूपी घर का वासी।
विदेही= देह रहित।
तेही=क्रोधी।
🪴शुभमस्तु !
२५ जून २०२२◆८.०० आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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