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✍️ शब्दकार ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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दादुर बोला दादुरी, आई पावस रैन।
मेघ अभी बरसे नहीं,मिले न पल भी चैन।।
अवधि गई आषाढ़ की,आधी गिरी न बूँद।
सिर के ऊपर उड़ रहे, बादल आँखें मूँद।।
कूक-कूक कोकिल थके,अब बैठे धर मौन।
अमराई में शाख पर,झूल रही अब कौन!!
पक कर पीले पड़ गए, अमराई में आम।
टप-टप कर गिरने लगे,नित्य भोर निशि शाम
धरती प्यासी ऊँघती,है मावस की रात।
पुरवाई चुपचाप-सी, करती है क्या बात!!
पूरब से पच्छिम चले, फूफा फूले गाल।
बादल नभ में टहलते, वर्षा बिन बदहाल।।
बरसा एक न दोंगरा, धरती प्यासी मौन।
पड़ीं दरारें देह में, बहे न शीतल पौन।।
छाया को भी छाँव की,लगी हृदय में चाह।
मौन नीम वट शिंशुपा,निकल रही है आह।।
रहा तमतमा भानु का,मुखमंडल नित गोल।
पल्लव हिले न एक भी,नहीं रहे तरु डोल।।
सरिताएँ कृशकाय हैं, सर में पड़ी दरार।
तेज धूप व्याकुल करे,बादल हुए फरार।।
पानी - पानी रट रहे,मानव पशु खग धीर।
मुरझाए पल्लव लता,दिया न पावस नीर।।
🪴 शुभमस्तु !
२८ जून २०२२◆९.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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