मंगलवार, 28 जून 2022

छाया चाहे छाँव 🌳 [ दोहा ]

  

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✍️  शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दादुर    बोला    दादुरी,  आई पावस   रैन।

मेघ अभी बरसे नहीं,मिले न पल  भी चैन।।


अवधि गई आषाढ़ की,आधी गिरी न  बूँद।

सिर के ऊपर उड़ रहे, बादल आँखें  मूँद।।


कूक-कूक कोकिल थके,अब बैठे धर मौन।

अमराई  में शाख पर,झूल रही अब  कौन!!


पक कर पीले पड़ गए, अमराई  में   आम।

टप-टप कर गिरने लगे,नित्य भोर निशि शाम


धरती  प्यासी ऊँघती,है मावस    की  रात।

पुरवाई  चुपचाप-सी, करती  है  क्या  बात!!


पूरब  से  पच्छिम   चले, फूफा  फूले  गाल।

बादल नभ  में  टहलते, वर्षा बिन बदहाल।।


बरसा  एक न  दोंगरा, धरती प्यासी   मौन।

पड़ीं  दरारें  देह  में,  बहे न शीतल   पौन।।


छाया को भी  छाँव  की,लगी हृदय में चाह।

मौन नीम वट शिंशुपा,निकल रही है आह।।


रहा तमतमा भानु का,मुखमंडल नित गोल।

पल्लव हिले न एक भी,नहीं रहे तरु डोल।।


सरिताएँ  कृशकाय हैं, सर में पड़ी  दरार।

तेज धूप  व्याकुल करे,बादल हुए  फरार।।


पानी - पानी रट रहे,मानव पशु  खग धीर।

मुरझाए  पल्लव  लता,दिया न  पावस नीर।।


  🪴 शुभमस्तु !


२८ जून २०२२◆९.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

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