शुक्रवार, 3 जून 2022

आटे दाल का भाव! 🍲 [ व्यंग्य ]

 

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✍️ व्यंग्यकार ©

🍲 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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'आटे दाल का भाव मालूम होना' हिंदी साहित्य का एक प्रसिद्ध मुहावरा है; किंतु इस से भिन्न मेरी सोच व्यंजनात्मक न होकर अभिधात्मक ही है।अपने एक यात्रात्मक  संस्मरण से आटे दाल का सही भाव का ज्ञान ही नहीं अनुभव भी हो गया।

आज एक कहावत बड़ी ख्याति प्राप्त कर रही है:'उतना ही लो थाली में ,फेंकना न पड़े नाली में।' यह तो रही एक आदर्श की बात।इसके विपरीत यथार्थ तो कुछ और ही देखा जा रहा है। समय,व्यक्ति और भोजन की बचत  के लिए बफर प्रणाली समाज में प्रचलित हुई थी।इस सोच के बावजूद भोजन की बचत नहीं हुई ,बरबादी और ज्यादा बढ़ गई।कुछ पेटू मानसिकता के लोग इस सोच में रहे कि कुछ रह न जाए ,जिसे वे नहीं खा पाएँ। परिणाम यह हुआ कि प्लेट  में  वह सब कुछ सजा कर चलने लगे ,जितना भी पूड़ी ,रोटी, सब्जियाँ, रायता ,दालें, चावल, मिठाईयां, दूध ,आइसक्रीम, बना ;सब कुछ भर लिया। पर क्या करें, पेट ने पहले ही जवाब दे दिया कि अब नहीं।इसलिए अब क्या ?बचा हुआ भोजन फेंकना ही था। फेंका गया। क्या इसे भोजन की बचत कहा जायेगा?

हुआ यूँ कि पवित्र सरिता- अवगाहन के बाद सायं लगभग साढ़े सात बजे बाहर आए तो किनारे पर ही एक होटल दिखाई दिया। उस होटल को देखकर ही नहीं ,वैसे भी भोजन का समय देखकर उदरेच्छा औऱ भी तीव्र हो गई ।लम्बा -चौड़ा विशाल 'होटल रोटी वाला'।सोचा , रोटी वाला है ,रोटी दाल ही तो खानी है।चलते हैं।अंदर प्रवेश किया। सीटें ग्रहण करते ही मीनू उपस्थित हुआ। देखा।और तो बाद की बात । आटा दाल के रेट देखकर ही  लगा ,जैसे हम यहाँ रोटी खाने नहीं, विलासिता के लिए आए हैं।किंतु रोटी तो खानी ही थी। इससे कुछ हटकर औऱ सस्ता खा भी नहीं सकते थे।रोटी दाल की  जगह घास - पात भी नहीं चल सकता था। घास -पात उनके मीनू पत्र में भी नहीं था।  पेट की माँग के सामने रेट तो रेत में चली गई ।भोजन परोसा गया। खाया भी गया। खाना ही था। 

लेकिन देखा कि जितने आटे से एक चार - पाँच सदस्यों के परिवार का पेट भर सकता है,उतने मूल्य की एक रोटी?और डेढ़ किलो दाल की कीमत में मात्र तीन छोटी - छोटी कटोरियों में अरहर की दाल। जैसे भोजन नहीं, देव- पूजन करना था।पर करना तो पेट- पूजन ही था न ? हो गया कमाल। घर पर भोजनोपरांत जितनी रोटी दाल छोड़ देते थे, उतने में ही काम चलाना था।अन्यथा बिल तो आसमान को  ही जाना था। घर से बाहर बिल का तो सवाल ही था। आटे- दाल का भाव संज्ञान में ही नहीं, अनुभव में भी आ चुका था।

समय बदला।रीतियाँ बदलीं। रिवाज बदले।भोजन पूर्व प्रथम ग्रास अपने इष्ट को औऱ अंतिम कुत्ते के लिए अनिवार्य रूप से दिया जाता था।अब तो सब बदल गया।आज भी नालियों पर ,घूर पर , सड़कों पर ,खुले प्लाटों के ढेर पर बचे हुए अन्न- भोजन के ढेर देखे जा सकते हैं। पहली रोटी गाय के लिए निकाले जाने का विधान भूल गए।दूसरों को उपदेश देने का विधान आ गया। प्रकृति में पल रहे विभिन्न जीव- जंतुओं के लिए भोजन पूर्व का ग्रास हमारी दूरदर्शी सोच का परिणाम था।हमारी वह सोच भी अब मर चुकी है। बस आदर्शों के पुलिंदे उठाए हुए बैनर तले घूम रहे हैं।

आम आदमी पेट कैसे भर सकता है। यह तथ्य भी समझ में आ चुका है।जो जितना  चाहता है,उतना मूल्य वसूल करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है। कोई भूखा मरे तो मरे ,किसी को क्या? कोई देश भर की भूख मिटाने का ठेका थोड़े ही ले रखा है। कुँए पर ओक लगा कर अपनी प्यास बुझाने वाले देश में बोतलों के पानी से गला गीला करना आदमी की मजबूरी है। जिस देश में आम आदमी को दाल, रोटी औऱ पानी भी सहज रूप में उपलब्ध न हो ,उसके नेता  विकास के चाहे जितने  ढोल पीटते रहें , सब निरर्थक और खोखला है। चमचों के द्वारा उनका प्रशस्ति गायन एक षड्यंत्र से अधिक कुछ भी नहीं है।वे ऑडियो वीडियो बनाकर कितना भी मक्खन लगाएँ , पर  छुप -छुप के चूसा आम आदमी को ही जा रहा है।आम आदमी के खून की नींव पर उनकी विलासिता की मीनारें निर्जीव औऱ अकारथ हैं।देश की अन्दरूनी हालत बनाने के लिए कौन उत्तरदायी है ,यह बताने की आवश्यकता नहीं है। अमेरिका औऱ पश्चिमी देशों की अंधी होड़ आम आदमी को खोखला ही बना रही है। क्या इस देश में केवल अमीर औऱ पूँजीपति ही रहेंगे? जो अपनी विलासिता की दुंदुभियां बजाते हुए आम का तिरस्कार करते हुए दिखाई देंगे ?

 आज जंगल और पेड़ों को कटवा कर कंक्रीट के जंगल खड़े कर देने का नाम विकास है। सड़कें वीरान हैं।फलदार और  छायादार पेड़ काटकर बनाये जा रहे विकास के ये नमूने कोरोना जैसी बीमारियों के कारण खड़े के खड़े रह जाएंगे। जब इनमें रहने वाला ही कोई नहीं बचेगा ,तब किसके लिए रोओगे? एक बार खोदे गए गड्ढे हर साल पौधारोपण के काम आ जाते हैं। हर साल करोड़ों पौधे लगाए जाते हैं, पर पनपते नहीं दस - बीस भी। बैनर के नीचे फोटो खिंचवाकर ,वीडियो बनवा कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है।उनमें सिंचाई, निराई, गुड़ाई करने  कौन जाता है?

सोचना ये भी है कि यदि ये पौधे बड़े हो गए तो हर साल पौधे लगाने के लिए जगह ही नहीं बचेगी। फ़िर ये पौधे रोपने के ये  पवित्र  अभियान भी नहीं चल पाएंगे! वर्षा हो या न हो ,इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। जब पूर्ण विकास हो ही जायेगा, फ़िर इन अभियानों की आवश्यकता ही क्या रह जायेगी। इसलिए देश का विकास नहीं होना ही समाज सेवियों, झंडाबरदारों,नेताओं और भाषणबाजों के हित में है। सारी जमीन जब बंजर हो जाएगी , फिर विदेशों से गेहूँ, फल ,सब्जियाँ आयात करना देश के विकास के नाम लिखा जाएगा।सड़कों और बहुमंजिला इमारतों से कुछ बचेगा ,तब तो कृषि योग्य भूमि शेष रहेगी!  देश किस दिशा में ले जाया जा रहा है। यह भी एक गूढ़ पहेली बनकर रह गया है।

🪴 शुभमस्तु !

०३ जून २०२२◆ ७.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

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