शुक्रवार, 17 जून 2022

घास में कीड़े 🌿 [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌿 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हरी  घास    में   कीड़े   पनपे,

हर   पल्लव    छलनी   होता।

सुमन  खिलें  शाखा पर कैसे,

सूखा  है     सुगंध   -  सोता।।


पादप  की सूखी  शाखा  पर,

सुमन नहीं, फल  क्यों  आएँ?

जैसे  बोए    बीज    बाग   में,

वे   बबूल   बस   चुभ  पाएँ।।

घुड़शाला   में   गधे   पले   हैं,

खड़ा  - खड़ा    हाथी  रोता।।

हरी   घास   में   कीड़े   पनपे,

हर   पल्लव   छलनी  होता।।


घुट्टी  में घिस  जहर  पिलाया,

जहर      सपोले       उगलेंगे।

आस्तीन    के  साँप     दोमुँहे,

आजीवन    क्या    सुधरेंगे??

वही  काटता  फसल आदमी,

जो   अतीत   में   वह   बोता।

हरी    घास  में   कीड़े   पनपे,

हर  पल्लव    छलनी  होता।।


दूध    पिला कर  पाल रहे हो,

दोष  किसे   अब    देते   हो?

मिल  जाए   ऊँचा   सत्तासन,

मत   भी   तो   तुम  लेते हो!!

खंड -  खंड   हो  जाए भारत,

भावी   भले      रहे       रोता।

हरी   घास   में   कीड़े   पनपे,

हर  पल्लव   छलनी   होता।।


श्रम के बिना पेट जब भरता,

कौन  काम    करने    जाए?

पैरों   की     जूती   पैरों    से,

निकल  शीश  पर  जा धाए!!

अपनी  करनी का फल देखो,

हाथों   से     उड़ता    तोता।।

हरी  घास    में   कीड़े  पनपे,

हर  पल्लव   छलनी   होता।।


डेंगू  , मसक    चूसते   लोहू,

नाली   में   है   घर  जिनका।

मेवा   मिसरी    चाभ   रहे हैं,

आश्रय थल जिनका तिनका।

'शुभम्' योजना बदलें अपनी,

लगा     रही    जनता   गोता।

हरी   घास  में   कीड़े   पनपे,

हर  पल्लव   छलनी   होता।।


🪴 शुभमस्तु !


१७ जून २०२२◆१०.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।


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