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✍️ शब्दकार ©
🥘 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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जिस थाली में
सदा खाया,
उसी में छेद कर
लतिआया!
तेरा ये फितूर
समझ में नहीं आया !
न देखा वर्तमान
न भविष्य की चिंता,
देश के प्रति द्रोह
विद्रोह भी,
जीने का तरीका
भी शरमाया !
बाहर भी जहर
भीतर भी,
क्रूरता की होती है
कोई हद भी,
तेरे माँ बाप ने
क्या यही सिखलाया ?
कीड़ों की तरह
ग़ज़बज़ाना,
मच्छरों की तरह
सिमट खून पी जाना,
शायद यही तो
तुझे रास आया!
हाथ में पत्थर
दिल में भी पत्थर ही
पत्थर,
रक्त का संचार
रुका पाया,
कभी सड़कों पर
कभी गलियों में
देखा तो दौड़ता पाया।
🪴शुभमस्तु !
१३ जून २०२२◆ ६.००पतनम मार्तण्डस्य।
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