मंगलवार, 7 जून 2022

बूँद बादल से नहीं चली 🌧️ [ नवगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🌧️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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सूरज ढोया

सिर पर अपने

प्यासी प्यास बढ़ी,

बूँद बादल से नहीं चली।


लगा दिखाने आँखें अपनी

सूरज    दृष्टि   तरेरे,

बादल विदा हुए अंबर से

तनिक न धरती हेरे,

खौल   उठा     है   पानी,

टपके क्यों छप्पर छानी!

नहीं खिल पाती एक कली।


फटती है धरती की छाती

सर सरि तप्त हवाएँ,

छाँव माँगने लगी छाँव को

पादप   मौन  लताएँ,

बस   बात   नहीं  इतनी,

कही है शब्दों ने जितनी,

जली  भूभर में पाँव - तली।


कहाँ गई हरियाली तेरी

ऐ  भारत के  गाँव! 

चौपालें घुस गईं घरों में

है गाँव हांव ही हांव,

गिरते नहीं टिकोरे,

आलू बोरे के बोरे,

आदमी गँवई हुआ छली।


सड़क किनारे पेड़ नहीं हैं

बरसे कैसे पानी,

बैठी  विरहिन आस लगाए

 भीगे कब चुनरी धानी,

कंकरीट   के  जंगल,

कैसे हो जल -मंगल,

रेत उड़ती घर गाँव गली।


🪴 शुभमस्तु !


०७ जून २०२२ ◆ १.३० पतनम मार्तण्डस्य।


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