सोमवार, 25 नवंबर 2024

नवीनीकरण [ व्यंग्य ]

 539/2024 


 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 इस सृष्टि में नया कुछ भी नहीं है।सब कुछ पुराने का दोहराव मात्र है। अभिव्यक्ति की शैली तथा माध्यम भिन्न हो सकता है।किंतु कवि, लेखक,कहानीकार,उपन्यासकार,गीतकार,चित्रकार,कुम्हार, वास्तुकार,रंगकार आदि सभी उसी पुराने ढोल को पीट -पीट कर नया संगीत बनाने सजाने में सन्नद्ध है।अपने-अपने नित्य कर्म से आबद्ध है।यहाँ तक कि इस सृष्टि का निर्माता भी नित्य उन्हीं सुबह,साँझ,सूरज,चाँद,पेड़-पौधों, सरिता,गिरि, सागर को नए रूप में नवीनीकृत करने का प्रयास करता है।और इस जगत में विद्यमान रचनाकार नव निर्माण के गुरूर में समाता नहीं। कोई कुछ नया नहीं कर रहा है। सब कुछ पहले ही विद्यमान है और तू समझ रहा है कि तू नव निर्माता है!सृजनकर्ता है! ब्रह्मा है!अब तो ब्रह्मा जी को भी नव निर्माण से पूर्व सौ बार सोचना पड़ता है कि कहीं पहले तो नहीं बन गया और मैं उसी की पुनरावृत्ति किए दे रहा हूँ! निर्माण भी इतना अधिक हो गया है कि ध्वंस-ईश को अंततः उसका संहार करना पड़ जाता है ।

 बात साहित्य सृजन की करते हैं।हर साहित्यकार नया कहने और लिखने का दम्भ पाले हुए जी रहा है और लेखनी से निसृत सुरा पी रहा है। जब उसे ज्ञात ही नहीं कि इससे पहले भी बहुतों ने इसी बात को अपने ढंग से कह दिया है ,तो तुम्हारा नया क्या है ? सब कुछ पुरानी लकीर को पीटना है। तुम्हें भी अपने ढंग से कलम घसीटना है। सब नवीनीकरण हो रहा है। 

 यहाँ प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब सब कुछ जीर्णोद्धार है,पुनः-पुनः पूर्वकथित का उच्चार है तो तुम्हारा लिखना बेकार है। बेकार कुछ भी नहीं है। तुम्हें भी ब्रह्मा बनने का पूरा अधिकार है।हाँ,इतना अवश्य है कि रखना नहीं होगा तुम्हें नव सृजन का अहंकार। ईंट भी वही गारा भी वही, नया क्या लाओगे ! नया क्या बनाओगे! नया क्या आजमाओगे! बस अपने गले में टाँगकर प्रशस्ति की तख्ती किंचित इतराओगे। 

 कुछ लोग ब्रह्मा बनने के चक्कर में भ्रमित हैं। दिग्भ्रमित हैं। वे नए छंद निर्माता बने हुए हैं।एक चने से भाड़ फोड़ने में लगे हुए हैं। मूढ़ अनुगामियों की भीड़ उनकी पूँछ बनी हुई है। वे हनुमान जी बने हुए कभी इस कँगूरे पर कभी उस कँगूरे पर उछल -कूद मचा रहे हैं और अनुगामी बंदर -बंदरियां सिहा रहे हैं।कभी पूर्ण विराम लगाते हैं ,कभी अर्द्ध विराम सजाते हैं और स्व घोषित नव छंद निर्माण का अपने नाम इतिहास लिखवाते हैं। आदमी की महत्त्वाकांक्षा जो न करे !कम ही है।मैंने पहले ही कहा है कि इस आदमी नामके दो टाँग धारी और दुमहीन नर - नारी की शातिराना चमत्कारी कहाँ नहीं दिखाई देती! अब साहित्य ही क्यों उससे वंचित रह जाएगा! छल -छिद्र मय रूप कहाँ गुप्त रह पाएगा !वह जहाँ भी जाएगा ,अपना चरित्र अवश्य चरितायेगा।उसी हाड़-माँस से जैसे ब्रह्मा जी पशु पक्षी कीट मानव मछली मेढक आदि का निर्माण कर रहे हैं, वह भी इधर का उधर स्थान परिवर्तन मात्र है।किंतु जीव और जगत के लिए वह नित्य नवीन है। 

 नया बना लेने के गुमान में आदमी अपनी खुशियों का लेबल ऊँचा कर लेता है और असली ब्रह्मा को भूल कर स्वयंभू ब्रह्मा बन बैठता है। मैं किसी एक का नाम क्यों लूँ ? वह काशी,मथुरा,पुरी,द्वारिका कहीं भी हो सकता है। उग सकता है। बरसात में अनायास ही कुकुरमुत्ते उग आते हैं। न कोई बीज बोता है, न खाद डालता है।फिर भी सिर उठा तन ही लेते हैं। कुकुरमुत्तों की क्या ! वे तो उगेंगे ही।वैसे ही स्वतः मुरझाकर सूख भी जाने हैं। उन पर आम, सेव या केले नहीं लटक पाने हैं। आदमी का अहंकार जो न करे!

 शुभमस्तु !

 25.11.2024●845आ०मा० 

 ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...