496/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सिद्ध करने में
लगा हूँ मैं बुढापा।
बालपन यों ही
नहीं मैंने बिताया,
खेल क्रीड़ा में
नहीं यों ही गँवाया,
भूल कर भूला नहीं
मैं व्यर्थ आपा।
बढ़ता प्रबुद्धि की
दिशा में रात-दिन मैं,
बीज जो बढ़ने लगा
था विपल छिन में,
हुआ बचपन
अग्नि में ज्यों तपा तापा।
शुद्ध यौवन को करूँ
चिंता बड़ी थी,
शृंग - सी दीवार
सत पथ में खड़ी थी,
अंततः प्राप्तव्य का
पथ डगर नापा।
वृद्धता को
सिद्ध करने में लगा हूँ,
मैं सभी का बंधु हूँ
सबका सगा हूँ,
नाम है मेरा 'शुभम्'
शुभता ही जापा।
शुभमस्तु !
02.11.2024● 9.45आ०मा०
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