सोमवार, 25 नवंबर 2024

सोचने बैठें तो ... [ व्यंग्य ]

 534/2024

            


©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सोचने बैठें तो सोच की पगडंडियाँ शुरू हो जाती हैं। अब यह अलग बात है कि हम किस पगडंडी को अपनी यात्रा के लिए चुनते हैं।अब यह भी तो हमारे ऊपर ही निर्भर करता है कि हमें यात्रा करनी भी है अथवा नहीं।कभी -कभी ऐसा भी होता है कि हम कहीं नहीं जाते और वहीं के वहीं मस्ट मारकर बैठे रह जाते हैं।यदि किसी पगडंडी पर चल पड़ेंगे तो मंजिल भी मिलेगी।इसलिए बेहतर यही रहता है कि चलें।चलते रहें। चल ही पड़ें।अन्यथा पड़े-पड़े क्या झख मारें!क्योंकि हमारे उपनिषदों में चरैवेति चरैवेति का प्रेरक संदेश दिया गया है। यदि चींटी भी चल पड़े तो वह हजारों योजन की यात्रा कर लेती है और गरुण भी यदि बैठा रहे तो एक इंच भी नहीं हिल पाता। इसलिए चलते रहना ही जीवन है।


जिधर भी दृष्टि डालें,सब चल रहे हैं।चलते चले जा रहे हैं। जब सब चल रहे हैं तो उनके चलने का कोई न कोई लक्ष्य भी होगा।कोई न कोई  गंतव्य भी होगा। जहां तक मैं समझता हूँ कोई निरर्थक नहीं चलता।सबकी यात्रा सार्थक ही होती है।सार्थक होनी ही चाहिए।चाँद,सूरज,धरती,आग,पानी कोई भी तो स्थिर नहीं है।सबकी प्रकृति चलना ही है।क्योंकि रुकना ही मृत्यु है और मरना कोई भी नहीं चाहता। इसलिए सबको चलना है।एक यायावर भी निरर्थक नहीं चलता।


चलने का दूसरा नाम जीवन है।यदि जीवन को जीवंत रखना है,तो चलते रहें। रुकें नहीं। युग-युग से  आदमी चलता रहा तो गुफाओं के निवास ,छाल पत्तों के लिबास और मांस आदि से मिटाता हुआ अपनी  भुकास ; वह  आज कहाँ से कहाँ जा पहुँचा है ! यह सब उसके अनथक और निरंतर चलते रहने का सुपरिणाम है। वह चला ,इसलिए आज मानव से दानव और पिशाच के गंतव्य को भी पा सका है। चलने पर यह आवश्यक नहीं कि सब कुछ सकारात्मक ही हो। परिणाम नकारात्मक भी हो सकता है। वह चला है तभी तो नारी को देवी लक्ष्मी दुर्गा और सरस्वती मानने वाला इंसान आज नराधम की मंजिल तक जा पहुँचा है।अपनी माँ बहन को माँ बहन और दूसरे की माँ बहन को भोग्या,क्रीत दासी ,पैरों तले की जूती,वेश्या और दुश्चरित्रा मानने वाला 'महापुरुष' ढोरों से भी नीचे जा पहुँचा। यह भी तो मनुष्य के निरन्तर चलते रहने का परिणाम है। भले ही वह कुपरिणाम हो। जब चलेंगे तो कहीं न कहीं पहुचेंगे भी।


चलते चले जाने की सोच कहाँ से कहाँ की यात्रा करा सकती है, यह  इस मन और बुद्धि के चलने का ही फल है।चलने के लिए रास्ते और पगडंडियाँ चयन करना बुद्धि के चलने का काम है।किसकी बुद्धि कहाँ तक और किस दिशा में चले, कौन जाने ! मन और बुद्धि की चलन-यात्रा  कुछ यों ही नहीं हो जाती ! इसलिए सबके मन और बुद्धियाँ अलग -अलग पथ चुनती हैं। मन और बुद्धि की चलन -यात्रा से ही मनुष्य देव तुल्य, पिशाच तुल्य या दानव तुल्य बनता है। सब चल रहे हैं। सबकी पगडंडियां अलग हैं। रास्ते अलग हैं। मंजिल भी अलग ही होंगीं। आदमी बस अपने को चला रहा है।


ये सोचने के लिए बैठना भी एक चलन - यात्रा है।कहाँ से चले थे,कहाँ जा पहुँचे।यात्रा रुकनी नहीं चाहिए। यह अलग बात है कि अलग -अलग पड़ावों पर किंचित ठहर कर  और सूचिन्तन कर लिया जाए कि भटकें नहीं।अटकें नहीं। यात्रा चाहे जल की हो नभ की हो या भूतल की हो ; यात्रा तो यात्रा ही है।यात्रा है तो आधार भी होना चाहिए। निराधार यात्रा भटकाव मात्र है।जैसे बियावान जंगल में भटक गया हो। ऐसी यात्रा किसी काम की नहीं है। न पौधे रुके हैं न जलचर, नभचर या थलचर ;तो मनुष्य ही क्यों रुके। बस, यात्रा सार्थक और सोद्देश्य होनी चाहिए। हमारी चिंतन - यात्रा भी सार्थक हो,यही कामना है।

क्या -क्या सोचने बैठे थे और क्या सोच बैठे।मन को रुकना नहीं आता। वह नहीं रुका। चलता ही रहा और यहाँ लाकर कर दिया खड़ा कि  चलते रहो।चलते रहो। एक सोद्देश्य यात्रा पथ के यात्री बनो। यही चलने की सार्थकता है।सोचने बैठने की भी।


शुभमस्तु !


24.11.2024●11.15 आ०मा०

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