533/2024
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डॉ.भगवत स्वरू
जीवन के कुछ पल ,दिन और छोटी - छोटी घटनाएँ ऐसी भी होती हैं,जो कभी नहीं भूलतीं।बात उन दिनों की है ,जब वर्ष 1975 में मैंने एम०ए० उत्तीर्ण कर लिया था।1976 में मैंने पी-एच०डी० के लिए आगरा विश्वविद्यालय में पंजीकरण करा दिया था।तभी एक दिन साइकिल से आगरा जाते समय मेरा इंटरमीडिएट का सहपाठी हृदयेश कुमार गुप्ता मिला। उसने मुझसे कहा चल मैं तुझे अपनी कंपनी के मालिक से मिलवाता हूँ। शायद तुझे भी जॉब मिल जाये।उस समय मैं बेरोजगार तो था ही,इसलिए मन में एक उम्मीद लिए हुए मैं उसके साथ उस कंपनी के ऑफिस में चला गया। इतना तो अवश्य ही कहूँगा कि वह कंपनी (नाम का उल्लेख नहीं किया जाए तो उत्तम है) आगरा में मेरे घर से चार -पाँच किलोमीटर दूर टेढ़ी बगिया पर स्थित थी।
कम्पनी के ऑफिस में जाने पर मेरा मित्र तो खड़ा रहा और मुझे बैठ जाने का संकेत किया।एक बड़ी सी मेज के सामने रिवोल्विंग चेयर पर एक तीस वर्षीय युवा व्यक्ति बैठा हुआ था। उसके संकेत पर मैं सामने पड़ी हुई एक कुर्सी पर बैठ गया और अपने दोनों हाथ मेज पर रख लिए। किन्तु यह क्या ? कि सामने बैठे हुए व्यक्ति ने मुझसे कहा ठीक से बैठिए अर्थात उसका इशारा मेरे द्वारा मेज पर हाथ रखना उसे ठीक नहीं लगा।तुरंत ही मैंने अपने हाथ नीचे किए और मेरा चेहरा एकदम फीका पड़ गया। मैं अपमान का कड़वा घूँट पीकर रह गया। मैंने बिना कोई देरी किए वहाँ से बाहर आना ही उचित समझा और मित्र से कहा - अच्छा हृदयेश मैं चलता हूँ। मुझे देर हो रही है।एक पल की भी देरी किए बिना मैंने उस व्यक्ति को यह भी मौका नहीं दिया कि वह मेरे आने का उद्देश्य भी पूछ पाता। वह दिन है कि आज का दिन है इस तरह के अहंकारी धनाढ्यों से एक वितृष्णा हो गई है।
शुभमस्तु !
23.11.2024●9.15प०मा० ●●●
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