512/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
युग बीते
अब भी हैं रीते
हेलमेल से ये मानव।
तरुवर खग से
क्या हम सीखे
लड़ना रक्त बहाना ही,
हो आलिंगनक्रुद्ध
परस्पर
सबका हृदय दुखाना ही,
वर्णभेद में
खोया सोया
बना हुआ है तू दानव।
प्राण प्राण में
चाहत जागे
सबको गले लगाने की,
घृणा द्वेष
अघ रहें न कोई
सोचें जगत सजाने की,
जिधर सुनें
बस यही सुनें हम
गूँज रहा कोलाहल रव।
देखो
है इनमें भी जीवन
तरह-तरह की नभचारी,
श्वेत श्यामला
अरुण चोंच की
सबकी सब हैं आभारी,
बहुत भा गया
भाव 'शुभम्' को
करती हैं कलरव नव- नव।
शुभमस्तु !
12.11.2024●4.00आ०मा०
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