521/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
शब्दों की
सरिता में चलकर
बड़ी दूर तक मैं बह आया।
टूटे मिले
किनारे कितने
मेढक मछली सीप शिवारें।
कछुओं ने
हड़काया मुझको
करके अपनी बंद किवारें।।
फिर भी
रुका नहीं यात्रा पथ
मुझको आज कहाँ पहुँचाया।
अवरोधक
उभरे टीले जो
गतिरोधन करते ही पाए।
उपदेशक
समझा था जिनको
लगता पथ को रहे भुलाए।।
तिनके का
मिल गया सहारा
काव्य सरित में खूब नहाया।
अपनी आँखें
चलो खोलकर
कौन तुम्हें भरमा पाएगा !
अपने दीपक
आप बनो तो
अँधियारा क्यों कर छाएगा??
दीवाना मैं
शब्द - सुमन का
कविता ने हरदम महकाया।
शुभमस्तु !
18.11.2024●11.45आ०मा०
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