सोमवार, 25 नवंबर 2024

स्वयं धुरंधर बन बैठे [ नवगीत ]

 531/2024

       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


टाँगी खूँटी पर

मानकता

स्वयं धुरंधर बन बैठे।


ऊबड़-खाबड़

लय अधकचरी

नहीं वर्तनी शुद्ध कहीं,

ज्ञान- गूढ़

कहलाते खुद ही,

कर लेते वे युद्ध  वहीं,

बतलाए

यदि सुपथ बीच में

उस पर  तने हुए ऐंठे।


लारी नहीं

बोगियां भर-भर 

कवियों की निकली बारात,

सभी कह रहे

दुलहा मैं ही

सुनता नहीं किसी की बात,

लंबी ग़ज़ल

गीत कविताएँ

छंद हायकू भी गेंठे।


शॉल गले में 

पड़ जाए तो

मैं ही सूर निराला पंत,

कालिदास 

मैं ही हूँ तुलसी

मैं मीरा कवयित्री संत,

सम्मानों के

भूखे प्यासे

पे टी एमों पर  लेटे।


शुभमस्तु !

23.11.2024●10.15आ०मा०

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