सोमवार, 25 नवंबर 2024

है विचित्र अति हाल [ गीतिका ]

 538/2024

         

©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भरी  विविधता  जग  जनगण   में।

नहीं   लीन   वे      रस-वर्षण   में।।


धूल  लदी    है    ढेरों     मन   पर,

रुष्टा -  तुष्टा   वे      क्षण -क्षण  में।


कोयल  कम  कागा    ही   बसते,

रुचि  जिनकी है नित बस रण में।


अहंकार    की     काई       छाई,

रमता  है      मन     संघर्षण   में।


नैतिकता   की   पूछ    न    कोई,

झूठ  बिका करता  है    पण  में।


ढूँढ़  रहे       मंदिर    मस्जिद  में,

बसा  हुआ है प्रभु कण- कण में।


है  विचित्र अति  हाल जगत का,

'शुभम्' मिले कैसे  रब   व्रण  में।


शुभमस्तु !


25.11.2024●6.15आ०मा०

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