538/2024
©शब्दकार
डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'
भरी विविधता जग जनगण में।
नहीं लीन वे रस-वर्षण में।।
धूल लदी है ढेरों मन पर,
रुष्टा - तुष्टा वे क्षण -क्षण में।
कोयल कम कागा ही बसते,
रुचि जिनकी है नित बस रण में।
अहंकार की काई छाई,
रमता है मन संघर्षण में।
नैतिकता की पूछ न कोई,
झूठ बिका करता है पण में।
ढूँढ़ रहे मंदिर मस्जिद में,
बसा हुआ है प्रभु कण- कण में।
है विचित्र अति हाल जगत का,
'शुभम्' मिले कैसे रब व्रण में।
शुभमस्तु !
25.11.2024●6.15आ०मा०
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