501/2024
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
'सदभावों' के
पीछे-पीछे
अनुभाव तुम्हारा छिपा हुआ।
धन की चाहत ने
दुनिया में
मानव को कितना बदला है,
कहता जो
कलमकार खुद को
उसका मानस भी गदला है,
अर्जन कुछ
धन का हो जाए
धनदेवी की मिल जाय दुआ।
बनिये हैं
कहें नहीं कविवर
केवल धंधे की सोच बड़ी,
कविता बेचें
रख ठेले पर
कवियों के दर पर हुई खड़ी,
कवि आँख फोड़ता
लिख- लिख कर
खाताधारक को मालपुआ।
ये छन्दहीन
लँगड़ी कविता
छोटी लंबी जिसकी टाँगें,
हम गद्य कहें
या लेख जिसे
जो अर्थ भाव अपना माँगें,
बतलाओ
'शुभम्' सत्य इतना
कैसा ये अंधा काव्य-कुआ।
शुभमस्तु !
04.11.2024●1.15प०मा०
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