505/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
थी चाहतें
मन में बड़ी ये
दर्शन करे भगवान का।
मंदिर गया
जूते उतारे
और अंदर घुस गया,
बिंबित हो रहे
जूते युगल
मन में चुचाता रस नया,
मस्तिष्क में
जूते बसे थे
क्या करे अरमान का?
जैसा गया
वैसा ही लौटा
क्या मिला भगवान से?
कोई चुरा ले
शूज़ महँगे
डरता रहा इंसान से,
तिलक छापा
भी लगाया
शीश ऊँचा दान का।
जूते बसे
मस्तिष्क में दो
आ सकें भगवान क्यों?
रह सकेंगे
फिर हृदय में
अलविदा रहमान यों?
सुन 'शुभम्'
पर्याप्त होता
प्रेम-पल्लव पान का।
शुभमस्तु !
05.11.2024●5.00प०मा०
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