497/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
जल गई रस्सी
न ऐंठन जा सकी
क्या कीजिए।
उम्र बीती
पार अस्सी कर लिया
बुझता दिया है,
मोम होना था
जिसे पर हो सका क्या?
पत्थर का हिया है !
खाल लटकी
देह की
कुछ भीजिए।
दिखता नहीं है
आदमी हंकार में
बंद चमड़े के नयन तेरे गले ,
खोल तो ले
ज्ञान का वह चक्षु भकुए
ढोर भी हैं आज तो तुझसे भले।
सत्य सुनकर
कान से क्यों रोष में
क्यों खीजिए?
दूसरों के ठौर पर
बैठा स्वयं को
कैसा लगेगा सोच तो ले आज !
ऊँट जाए जब
कभी पर्वत तले
गिर पड़ेगा भूमि पर सिर ताज,
सुन 'शुभम्' के
हाथ से हो ले अलंकृत
यह लीजिए।
शुभमस्तु !
03.11.2024●12.15प०मा०
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