सोमवार, 25 नवंबर 2024

विरत यात्रा [ नवगीत ]

 532/2024

                 

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


घोंसले से

घोंसले की

विरत यात्रा।


उड़ रहा तू

पंख के बिन

युग-युगों से,

थकता नहीं

रुकता नहीं

बेपर डगों से,

तू न चालक

चल रही है

तिरथ यात्रा।


प्राण की 

डोरी बँधी 

तू साथ उसके,

देह मिलती

मनुज या खग 

मस्त रस से,

विवश जीवन

और के हित

सिरत यात्रा।


एक पल भी

तू न बैठे

चल निरंतर,

गंतव्य है

फिर भी नहीं

है रिक्त अंतर,

जीव की ये

होती 'शुभम्'

निरत यात्रा।


शुभमस्तु !

23.11.2024●2.15प०मा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...