शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

कान से ली ; जुबान से दी [ व्यंग्य ]

 ३७/२०२३ 

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व्यंग्यकार © 

 🐁 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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      निंदक औऱ निंदा समाज के आवश्यक तत्त्व हैं।इनके बिना समाज में गति नहीं आती।इसीलिए महात्मा कबीरदास ने सैकड़ों वर्ष पहले कहा था: 'निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय।बिन साबुन पानी बिना,निर्मल होत सुभाव।।' 

     'निंदा रस' एक ऐसा रस है,जो मानव मात्र में एक अनिवार्य तत्त्व की तरह विद्यमान है।भोजन के षट रसों औऱ साहित्य के दस रसों से सर्वथा भिन्न इस रस के स्वामी और ग्राहक को किसी विद्यालय ,महाविद्यालय में पढ़ने किंवा प्रक्षिक्षण लेने अथवा किसी विश्वविद्यालय की उपाधि प्राप्त करने की भी आवश्यकता नहीं है।वास्तविकता यह है कि इससे निंदक की ऊँचाई और गहराई की पड़ताल अवश्य हो जाती है ।कहने का तात्पर्य यह है कि यह निंदक की अपनी बुद्धि का बैरोमीटर है।उसके अपने स्तर की माप करता है।इसके साथ ही जो निंदा को सुनता है, उसकी माप तो स्वतः ही हो जाती है ;क्योंकि निंदक सदैव अपने स्तर के श्रोता को खोजकर ही निंदा- प्रवचन करता है।जैसे दो सासें अपनी बहुओं की निंदा तभी करती हैं ,जब श्रोता सास उतना ही रस लेकर उसका आस्वादन करे। बीच बीच में उसकी जिज्ञासा और प्रश्न तो उसको और दीर्घता प्रदान करते हुए अगणित गुणा रस वृद्धि करते हैं। जैसे :' उसके बाद?' ' फिर क्या हुआ?' 'फिर उसने भी लौटकर मारा ? ' आदि वाक्यांश उसके रस उद्भव में चार चाँद लगा देते हैं। निंदा और निंदक मानव - चरित्र की पहचान का पैमाना ही है। 

        निंदा में कभी भी सच तथ्य को नहीं कहा जाता ।झूठ और सच का अनुपात 90 - 100 या कभी -कभी 100-100 भी रह सकता है।यदि कभी कोई सच बात कह भी दे तो उसे सिद्ध करने के लिए प्रमाण देना भी अनिवार्य हो जाता है।यदि ये कहा जाए कि कल्लू के बेटे की बहू आई. ए. एस. हो गई तो कोई भी सहज रूप में विश्वास नहीं कर सकता। उसमें अनेक कैसे ?क्यों?कब?कहाँ?पैदा हो जाएंगे। इसके विपरीत यदि किसी के कान में ये फुसफुसा दिया जाए कि कल्लू के बेटे की बहू देवर के साथ फरार हो गई ,तो बिना किसी क्यों ?कब?कैसे? के बिना सहज रूप में शत- प्रतिशत बात स्वीकार ही होगी।औऱ वह समाज में ऐसे फैल जाएगी ,जैसे पानी के तल पर पड़ी हुई तेल की बूँद। 

         पूर्व में भी कहा जा चुका है कि निंदक की उपाधि कम या अधिक मात्रा में सबके ही पास होती है, क्योंकि वह जन्मजात है। स्वभावगत है।इसलिए सामान्य नर- नारी, चोर या व्यभिचारी, कर्मचारी या अधिकारी, नेता या मंत्री, मालिक या संतरी, शिक्षक या छात्र, कवि या आलोचक, सास या बहू,अड़ौसी या पड़ौसी,मौसा या मौसी ;कहाँ नहीं है। ऐसा व्यक्ति दिन में भी रोशनी- पुंज लेकर ढूँढने पर भी नहीं मिलने वाला ,जो निंदक या निंदा रस लोलुप न हो ! यह एक सर्वप्रिय मुफ़्त का रस है। इसके लिए किसी साक्ष्य ,किसी सौगंध, किसी गंगाजली, किसी गीता पर हाथ रखने आदि की कोई अवश्यकता नहीं है। निंदा सुनकर कोई कभी प्रश्न नहीं करता, सहज विश्वास ही करता है औऱ प्रचारक बनकर उसे जितना हो सकता है ,फैलाने में लग जाता है।

            कबीर दास के अनुसार यह एक ऐसा शुद्धक और बुद्धि सुधारक है कि इसके लिए कोई डिटर्जेंट ,ईजी या फिनायल ,हारपिक क्या पानी की भी आवश्यकता नहीं है।यह निंदक और ग्राहक दोनों को ही शुद्धि प्रदान करने का पुण्य कमाता है।यह अलग बात है कि यह किसी का भाव है तो किसी -किसी का तो स्वभाव ही बन चुका है। जिसका स्वभाव ही निंदा है, वह कदापि नहीं अपने कर्म से शर्मिन्दा है। क्योंकि वह तो एक ऐसा उड़ता हुआ परिंदा है कि कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल का वासिन्दा है। ऐसा निंदक जब तक जिंदा है, तब तक उसकी जबान पर अपना आसन जमाए हुए रानी निंदा है।अब चाहे वह मुम्बई ,कोलकाता हो या भटिंडा है।उसके माथे क्या उसकी सारी देह पर निंदा का बिन्दा है।

        निंदानंद को कभी क्रय नहीं करना पड़ता। इसको देने और लेने में कोई आर्थिक व्यय या हानि भी नहीं है। जब निंदा रस ही है ,तो कष्ट भी क्या होने वाला है? विरस होता तो लेने देने में आपत्ति भी हो सकती थी।गुणकारी जानकर तो लोग नीम और कुनैन को भी प्रेम से रसनास्थ कर जाते हैं।उदर में जाकर तो गुलाबजामुन और भिंडी की सब्ज़ी का भी एक ही हस्र होता है।इसके विपरीत निंदा सदा आनन्दप्रद ही बनी रहती है।अलग- अलग कानों में अलग - अलग मुखरविंदों से निसृत होकर अपना एक नवीन प्रभाव ही भरती है।भर पेट निंदा- रस लेने के बाद भी अपच नहीं होती।दूसरी ओर देने पर यह घटती भी नहीं।

       ठलुआ क्लब में समय व्यतीत करने का इससे अच्छा कोई साधन भी नहीं है।'हर्रा लगे न फिटकरी रँग चोखा ही आए'। यह घर, बाहर, दफ्तर, सड़क, पनघट,गली का नुक्कड़,घूर- स्थल,सभाकक्ष,जल भरण- थल, गली के नुक्कड़,दुकान, मध्याह्न -गोष्ठी स्थल, स्वेटर- बुनाई स्थल,विवाह ,शादी के उत्सव,परस्पर वस्तु-विनिमय काल आदि अनगिनत स्थान औऱ समय हैं ,जब निंदा रस- प्रसार अनवरत और अबाध रूप से होता है। 

       कबीरदास जी ने जब निंदक को नियरे अर्थात पास में रखने की पवित्र औऱ नेक सलाह दी, तो मेरा यह सोचना आवश्यक हो गया कि जब हम निंदकों की बस्ती, गली, दफ्तर, बाजार आदि सभी जगह निंदकों का बहुमत पाते हैं तो चाहे या अनचाहे उनसे बच भी तो नहीं सकते। वे तो धुएंदार हवा की तरह सभी जगह पहले से ही विद्यमान हैं।वे तो पहले से ही हमें छुछून्दर की तरह सूँघने में लगे हुए रहते हैं।उन्हें पास में क्या रखना?वे स्वयं हमें अपने पास रखे हुए होते हैं।वे कोई निराश्रित या बेघर तो हैं नहीं जो उनके लिए आँगन में कुटी छ्वानी पड़े। वे तो बहु मंजिला भवनों ,कोठियों और बिना आँगन के भवनों रहने वाले /वालियाँ हैं।अब आजकल के आवासों में आँगन बनाने का फैशन ही समाप्त हो गया तो कुटी छवाई भी कहाँ जाएगी? निंदा तो एक ऐसी 'बू' है जो सुनने और सुनाने वाले के लिए खुशबू है तो जिसकी फैलाई जाए ,उसके लिए बदबू है।एक ही वस्तु के उभय गुण ।कान से ली औऱ जुबान से दी जाती है;औऱ कभी -कभी तो फुसफुसाहट में ही मैदान पर मैदान पार करती हुई देखी जाती है। वाह री ! निंदा और वाह रे! निंदकों /निन्दकियो! 

 🪴शुभमस्तु! 

 20.01.2023◆ 11.30आरोहणम् मार्तण्डस्य। 

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