सोमवार, 23 जनवरी 2023

मैं' 🫧 [ आलेख ]

 41/2023 


 ■●■●■●■●■●■●■●■●■● 

 ✍️ लेखक© 

 🫧 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 ■●■●■●■●■●■●■●■●■● 

 अपनी साढ़े तीन हाथ की इस समग्र देह में नख से शिख तक अपने 'मैं' को ढूँढ़ता हूँ, तो मुझे कहीं कुछ भी मुझे अपने 'मैं' के अस्तित्व का पता नहीं लगता।मेरे उस 'मैं' के स्वत्व के अस्तित्व से मेरी देह का अन्तः और बाह्य दुर्ग जाज्वल्यमान है, तथापि अपने चर्म चक्षुओं से अदृश्य और अन्तः प्रज्ञा चक्षुओं से भी उस प्रकाश पुंज को ढूँढ़ नहीं पाया हूँ। देह के एक- एक अंग, उपांग,नस,तंत्रिका, रक्त प्रवाह,रक्त बिंदु ,सूक्ष्मतम कोशिकाएँ, प्रोटोप्लाज्म, केंद्रक,मायटोकॉन्ड्रिया आदि में मेरा 'मैं' कहाँ छिपा हुआ है;यह सब कुछ एक जटिलतम रहस्य ही है।

        मानव शरीर- वेत्ताओं ने बताया है कि जिस शरीर को हम देख और स्पर्श कर पाते हैं ,वह तो पंच तत्त्वों से बना हुआ 'स्थूल शरीर' है तथा हमारे द्वारा किये जाने वाले विविध कर्मों का साधन है।इसके भीतर दो शरीर और भी हमारी 'आत्मा' को ढँके हुए हैं , जिन्हें 'सूक्ष्म शरीर' और 'कारण शरीर' की संज्ञा दी जाती है।'स्थूल या भौतिक शरीर' से जब आत्मा बाहर चली जाती है तो हमारा 'सूक्ष्म शरीर 'उसके साथ रहता है औऱ उसमें केवल हवा और आकाश तत्व ही शेष रह जाते हैं।चूँकि हवा औऱ आकाश आँखों से देखे नहीं जा सकते ,इसलिए हमारे आसपास रहते हुए भी कोई 'सूक्ष्म शरीर' देखा नहीं जा सकता।उसका निर्माण भी हवा और आकाश तत्त्व से होता है।इतना सूक्ष्म होने के बावजूद इसमें हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ,पाँच कर्मेन्द्रियाँ,पाँच प्राण मन और बुद्धि ये कुल सत्रह सदैव उसके साथ रहते हैं। कितना विचित्र है हमारा यह 'सूक्ष्म शरीर'।

       उपर्युक्त परिच्छेद में जिन सत्रह (17) की चर्चा की गई है ;उनमें पाँच ज्ञानेंद्रियों (चक्षु, कान, नासिका, त्वचा और जीभ) तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ (हाथ,पैर, मुँह, गुदा औऱ लिंग) ;पाँच प्राण (प्राण,अपान,समान,उदान औऱ व्यान) तथा इसी क्रम से इनके पाँच ही उपप्राण क्रमशः(नाग,कूर्म,कृकल,देवदत्त और धनंजय) ,मन तथा बुद्धि :ये सभी सत्रह हैं।इन सभी के व्यापक सूक्ष्म और विस्तृत कार्यों तंत्र में मेरे 'मैं' की खोज करना कोई सहज कार्य नहीं है। इसके लिए 'नेति- नेति ' अथवा 'अनन्त' कहकर परमात्मा (किंवा प्रकृति) का जटिल रहस्य मानकर यही कहना चाहिए कि मेरा 'मैं' इस विस्तृत तंत्र में सर्वत्र व्याप्त है।जब एक -एक कर हमारे प्राण और उपप्राण इस देह को छोड़ने लगते हैं , तब मेरा 'मैं' भी उसके 'मैं पन ' का त्याग करते हुए अनन्त में विलीन हो जाता है और पंच तत्त्वों से निर्मित इस शरीर के क्षिति, जल, पावक ,गगन औऱ वायु अपने वास्तविक स्वरूप में क्षिति क्षिति में, जल जल में, पावक पावक में,गगन गगन में और वायु वायु में जाकर मिल एकमेक हो जाते हैं।मन, बुद्धि ,चित और अहंकार वाली यह आत्मा 'स्थूल शरीर' से मुक्त होकर हमारे 'सूक्ष्म' और 'कारण शरीर 'के आवरण से मुक्त होकर शुद्ध और पवित्र हो जाती है। मेरा 'मैं' कहीं भी नहीं शेष रह जाता।समस्त त्रि आवरणों से आच्छादित आत्मा निर्मल हो जाता है। 

      मेरा ये तथाकथित 'मैं' मात्र मेरे इस पार्थिव जगत में रहने तक है ,उसके बाद अनन्त लोक की यात्रा पर कहाँ - कहाँ जाता है और विविध पड़ावों को पार करता हुआ ,रुकता चलता बढ़ता है,कोई नहीं जानता।हमारे प्रारब्ध कर्मों की नाव हमें कहाँ ले जाए, सब कुछ भविष्य के गर्भ में है। 

 🪴शुभमस्तु !

 22.01.2023◆11.00पतन्म मार्तण्डस्य।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...