50/2023
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✍️शब्दकार ©
🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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एक वचन होता नहीं,तन में निवसित प्रान।
दस -दस का अस्तित्व है,वेत्ता- अनुसंधान।।
नर -नासा से वक्ष में,जिसका सदा निवास,
श्वास, शक्ति ,आहार को,करे संचरित 'प्रान'।
मल निष्कासन जो करे,नारि- प्रसव सम्पन्न,
रहता मूलाधार में, कहते विज्ञ 'अपान'।
रस वितरण संचार कर,हृदय नाभि के बीच,
ऊर्जा करे ज्वलंत ये, संज्ञा प्राण 'समान'।
पश्च कंठ से शीश तक,ऊर्ध्व गमन के काज,
करता चौथा प्राण ये,कहते सभी 'उदान'।
सकल देह में व्याप्त है,श्वास रक्त संचार,
अंतर्मन चालित करे, पंचम प्राण 'व्यान'।
पाँच प्राण के पाँच ही, क्रमशः हैं उपप्राण,
'नाग'कूर्म'तीजा 'कृकल','देव',धनंजय'जान।
हिचकी क्रोध डकार का,स्वामी होता 'नाग',
गुदा -वायु, तन की हवा,को देता पहचान।
नेत्र क्रियाएँ 'कूर्म' से,'कृकल' छींक या भूख,
'देवदत्त' अंगड़ाइयाँ, और जँभाई - तान।
रहे 'धनंजय' देह में, मरने के भी बाद,
हर अवयव को स्वच्छता,करता सदा प्रदान।
बहु प्राणों से जीव का , होता रक्षा - भार,
जाते ही दस प्राण के,तन को माटी मान।।
'प्रान '= 'प्राण' नामक प्रथम प्राण।
देव' =देवदत्त उपप्राण।
🪴शुभमस्तु !
27.01.2023◆4.30 पतनम मार्तण्डस्य।
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