शनिवार, 7 जनवरी 2023

मानव की 'त्वचा-भक्ति' 🍓 [ व्यंग्य ]

 011/2023

 

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✍️ व्यंग्यकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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              दुग्धवत उजले दिन को काली रात भले ही कितनी सुहाती हो,परंतु माटी के चूल्हे से उतरे तवे को फूल (काँसे)की थाली ही अत्यंत प्रिय लगती है।गौर वर्ण के प्रति यह स्वाभाविक आकर्षण मानवीय प्रकृति का एक आवश्यक गुण है।वस्तुतः वह मात्र एक 'त्वचा-भक्त'  है। त्वचा देह का एक आवरण है। उसके अंदर क्या- क्या है!कैसा -कैसा है ;इसको  जानने की जिज्ञासा किसी को नहीं है।यही कारण है कि स्वयं उलटा तवा सदृश विवाहेच्छु को गोरी परी चाहिए।रूप और रंग तो मात्र बाहरी ही दिखाई देता है, अंतर और अंदर की पहचान भला हो भी कैसे सकती है!

            अब चाहे वह मनुष्य हो या पशु- पक्षी, फल- फूल हो या कोई अन्य जीव या वस्तु ,उनका मात्र बाहरी रंग - रूप ही दृश्य है।अंदरूनी भाग सर्वथा अदृष्ट ही रहता है।यह भी निश्चित ही है कि अंदर से बाहर ही अधिक सुंदर और रूपवान होगा।किसी के भी बाह्य रूपाकार से उसके भीतर की पहचान सर्वथा असम्भव ही है।सम्भव है कि किसी भी प्रकार से भीतरी रूप पहचान हो भी जाए तो उससे वितृष्णा हो जाना भी स्वाभाविक ही है। 

           मानवीय 'त्वचा -भक्ति' का व्यापक रूप सर्वत्र देखा जाता है। यहाँ तक कि उसने मनुष्य देह का वर्गीकरण भी वर्ण के आधार पर कर लिया और उसे शास्त्रीय रूप देने के लिए ऋषियों- मुनियों और उसके कर्म को आधार बना दिया।यह तथ्य समझ में नहीं आता कि। 'चोरी,डकैती,गबन, व्यभिचार,अपहरण,राहजनी  धोखाधड़ी ,दुष्कर्म आदि के आधार पर कोई वर्ण या जाति नहीं बना।'  ये सफेद चमड़ी के भीतर भी गोरे बने रहे।इसके विपरीत मोचीगीरी,पीतल आदि धातुओं और मिट्टी के बर्तन निर्माण की कला,स्वच्छकारी,तेल की   क्री,किसानी,स्वर्णकारी,बाग़वानी, शाक -सब्जी के उत्पादन , कर्मकांड करने या कराने के आधार पर वर्ण और जातियों का बँटवारा करके मनुष्य- मनुष्य के बीच दीवारें खड़ी कर लीं गईं।धूप या आग के समक्ष काम- काज करने वाले लोगों के रंग काले या साँवले हो गए तो वे हीन समझे जाने लगे।कला रंग हीन वर्ण हो गया। धमनियों के अंदर बहने वाले रक्त के लाल रंग को नहीं देखा, जाना- पहचाना गया।इस आधार पर गोरी चमड़ी सुंदर वर्ण का औऱ काली चमड़ी निम्न वर्ण का प्रतीक बन गई।मानव की यह भेद - बुद्धि तर्क संगत नहीं कही जा सकती।

                 सार्वभौम विश्लेषण करने पर परिणाम यही प्राप्त होता है कि इस धराधाम ही नहीं सृष्टि के समस्त खगचर, जलचर और भूचरों में मनुष्य भी गधा,घोड़ा, चूहा,बिल्ली, वानर, शेर ,चीता, मेंढक, मछली ,कछुआ, घड़ियाल,मगरमच्छ, कोयल,कौवा, चील, मोर,उल्लू, मुर्गा ,बतख ,हंस आदि हजारों लाखों करोड़ों जंतुओं की तरह मात्र एक प्राणी ही है। प्राणी भी ऐसा कि स्वार्थ और केवल अपनी रक्षा वृत्ति के आधार पर वह भी उन सभी की तरह केवल अपने लिए जी रहा है।घोंसले छोड़कर ऊँचे -ऊँचे घरों रहने से उसमें कोई ऐसे तत्त्व नहीं पनप सके कि उसे उनसे श्रेष्ठतर कहा जा सकता। जिस प्रकार कोयल ,कौवा, गधा ,घोड़ा ,मच्छर मक्खी आदि की भाषा- बोली है ,वैसे ही उसने भी अपनी अनेक भाषाएँ और बोलियाँ स्थान विशेष ,भौगोलिक परिवेश और अन्य कारणों के आधार पर विकसित कर ली हैं। तो इसमें नया है भी क्या ? बुद्धि -तत्त्व की कुटिलता और कपट वृत्ति से आज वह सृष्टि का सिरमौर बनने का आडम्बर बनाये हुए सबको धता बताने पर उतारू है।

            देह पर वस्त्र धारण करने से मनुष्य अपने को सभ्य मानता है। सभ्यता क्या है?मात्र एक आवरण; इससे अधिक कुछ भी नहीं। त्वचा के आवरण को उतार नहीं सकता ,इस वस्त्रावरण को जब चाहें उतार कर बदल सकता है।अपने बहुरूपियेपन के लिए ये वस्त्र ही तो आड़ का काम करते हैं। जिनकी ओट में वह बुरे से बुरे कामों को अंजाम देता है। अच्छे काम के लिए  आड़ की जरूरत ही क्या ? औऱ हो भी क्यों? ब्राह्मण वेश धारी इंद्र तभी तो अहल्या के साथ छल कर सकता है ! रावण तभी तो कपड़े बदलकर सीता का अपहरण कर सकता है।मारीच मामा स्वर्ण मृग बनकर सीता को आकृष्ट कर सकता है! औऱ भगवान कहे जाने वाले राम और शेषनागावतारी अनुज लक्षण को छल सकता है। ये सब आवरण के ही प्राचीन उदाहरण हैं। आज भी वही परम्परा बाकायदा इस ' अति सभ्य' औऱ 'अति आधुनिक' समाज में पराकाष्ठा पर हैं। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। परम्परा निर्वाह किया जा रहा है। जिस प्रकार कपड़े गहने आवरण हैं;उसी प्रकार त्वचा भी एक अपरिवर्तनीय आवरण ही है।और आज के युग में तो प्लास्टिक सर्जरी से वह भी बदली जा सकती है ,बदली जा रही है।काले को गोरा बनाया जा सकता है, बनाया भी जा रहा है। यह 'त्वचा- भक्ति' बनाम 'आवरण -भक्ति' का चमत्कार मनुष्य के सिर चढ़कर बोल रहा है।

07.01.2023◆12.30 पतनम मार्तण्डस्य।

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