शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2025

दसमुख [ कुंडलिया ]

 604/2025


       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

त्रेता युग में विप्र था,दसमुख  जिसका नाम।

ज्ञानवान  शिवभक्त  भी,धरती पर था नाम।।

धरती  पर था  नाम, कर्म कुछ उसका ऐसा।

नीति  धर्म  प्रतिकूल,न  करता मानव वैसा।।

'शुभम्' हुआ बदनाम,जदपि वह धर्म प्रणेता।

हरी   राम  की सीय,  बना  दानव  युग त्रेता।।


                         -2-

खोटे    मानव    कर्म हों, होता पतन अवश्य।

जैसे  दसमुख  विप्र  का,हुआ  नाम अस्पृश्य।।

हुआ नाम  अस्पृश्य,  नहीं  रखते जन  रावण।

मानवता   के   नाम,हुआ हो  ज्यों कोई व्रण।।

'शुभम्' लिया  हठ  ठान,जले स्वर्णिम परकोटे।

उचित   यही   है तथ्य,कर्म क्यों करना खोटे।।


                         -3-

विजयादशमी    पर्व    की,  पावन है यह रीत।

दसमुख तमस प्रतीक है,राम विजय की प्रीत।।

राम   विजय    की प्रीत, युगों से चलती आई।

दसकंधर    का  नाश,  सदा   को  हुई विदाई।।

'शुभम्'  धरा    से एक,शुभद कन्या जो जनमी।

हरण  हुआ  वनवास, मुक्ति   में विजयादशमी।।


                         -4-

माता      जिसकी     कैकसी, एक दानवी नाम।

पिता    विश्रवा  एक  ऋषि,हुआ  पुत्र बदनाम।।

हुआ    पुत्र     बदनाम,  हरण  कर सीता लाया।

अहंकार    में    चूर, क्रूर    दसमुख कहलाया।।

'शुभम्'  कर्म  फल व्यक्ति,इसी जीवन में पाता।

हों   यदि   पिता  सुशील,  भद्र  भी  होवे माता।।


                         -5-

दसमुख    एक   प्रतीक  है,अहंकार का नाम।

रावण    दानव  एक  था,  श्रीलंका   में  धाम।।

श्रीलंका   में  धाम, भक्ति शिवजी की करता।

अहंकार  में    लीन,  कर्म   से   जीता -मरता।।

'शुभम्' सदा मतिमंद,किया करते उलटा रुख।

दुष्कर्मों   का बंध,   बना   रावण   वह दसमुख।।

शुभमस्तु !


02.10.2025● 10.30 प०मा०

                   ●●●

राम को आराम कब है! [ नवगीत ]

 603/2025


  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


इन रावणों के

बीच में 

एक राम को आराम कब है!


भ्रष्ट नेता

त्रस्त जनता

अँधियाँ  उड़ते  बगूले

चाहिए 

आधा कमीशन

क्यों न महँगाई वसूले

ओढ़े हुए है

पीत चीवर

प्राण रक्षक मात्र रब है।


खोलता 

अपनी जुबाँ जो

बंद  अब गुर्गे करेंगे

दीवार के पीछे

खड़े जो

घाव शब्दों से भरेंगे

धृष्टता से

बहुल सारा 

देश पूरा एक हब है।


कह रहे हैं

राम वे ही

देश के रावण रँगीले

जय विजय का 

पर्व है ये

दश हरा सब रंग ढीले

हर ओर है

अभिनय अनौखा

जल रही काँचन्य दव है।


शुभमस्तु !


02.10.2025●11.15 आ०मा०

                   ●●●

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

विजयदशमी का संदेश! [ अतुकांतिका ]

 602/2025





©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जनता पर

नेताओं की

विजय हो रही है!

आप ही बताओ

सत्य किधर है ? 

इधर या उधर ?


सस्ताई के सिर

मँहगाई 

चढ़ रही है,

आप ही बताओ

बुराई 

इधर है या उधर?


भले जन पर

अत्याचारी हावी है

क्या कभी सोचा है

अच्छाई किधर है

इधर या उधर?


नारी पर 

दुष्कर्मी अत्याचार करें,

स्वतंत्र घूमें

व्यभिचार भरें,

बता दो आप ही

उचिताई 

इधर है या उधर ?


क्या यही

विजयदशमी की

गरिमा और गुरुत्व है !

असत्य पर सत्य की

बुराई पर अच्छाई की

विजय का औचित्य है?


वाह रे मेरे महान देश

क्या यही है

विजयदशमी का सुसंदेश?

जहाँ नारी  की अस्मिता बची

न बची निरीह जनता,

भ्रष्ट आचरण का साम्राज्य

सर्वत्र छाए हुए गुंडा नेता।


रावण खुलेआम 

घूम रहे हैं ,

और राम ढूंढ़े से भी

नहीं मिलते !

क्या इसी का नाम

विजयदशमी है ?

नाटकों से रावण नहीं

जला करते !


शुभमस्तु !


02.10.2025●9.15 आ०मा०

                 ●●●

विस्तार [ सोरठा ]

 601/2025


     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अनथक    करें  विकास,जीवन को विस्तार  दे।

बिखरे विमल  उजास,सुमन खिलें जीवन  फले।।

अंड     पिंड   ब्रह्मांड,   अंबर  के  विस्तार  में।

सूरज  सोम   अखंड, सबका  नित्य सुवास   है।।


एक   सफल विस्तार,  संतति ही परिवार   का।

जीवन     में   अनिवार,  पढ़ें-लिखें   आगे बढ़ें।।

सागर    अतल   अपार,नदियों   का विस्तार   है।

गंगा-यमुना   धार,  निशि -दिन  ही   बहती  रहें।।


होता     सदा     विकास,  शिक्षा के विस्तार  से।

प्रसरित  दिव्य  उजास, देश मनुज -जीवन  बढ़े।।

फूल   और  फल बीज, कलियों का विस्तार  है।

अद्भुत   अनुपम   चीज,   वंश-बेल  बढ़ती   रहे।।


होता   राष्ट्र - विकास,  सड़कों के विस्तार   से।

मिटे   सकल   संत्रास,समय  बचे गति भी   बढ़े।। 

जानें   सकल   सुजान,   महिमा है विस्तार की।

मानव   बने   महान,  गौरव   गरिमा -वृद्धि  हो।।


घटता    है    परिवार,  किया नहीं विस्तार जो।

अकथनीय   सुख -सार, शिक्षा  अतुल प्रकाश है।।

चिंतन      बने    महान,करें सोच - विस्तार   तो।

करें   खोल   उर   दान,छोड़े   लघुता बुद्धि   की।।


चिंतन     यही   महान,  वसुधा  ही परिवार   है।

तनता जगत -वितान,जन -जन का विस्तार ये।।


शुभमस्तु !


02.10.2025 ●8.00आ०मा०

                 ●●●

पैसे के रथ पर [ नवगीत ]

 600/2025


           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गोल - गोल 

पैसे के रथ पर

चलता है संसार।


गोल -गोल ही

पहिए उसके

गुम्बद   गोल-मटोल

बैठा रथ पर

नहीं जानता

धन-रथ का क्या मोल

उदय-अस्त हो

सूरज उससे

छलता है संसार।


दो रोटी की

खातिर करता

कितने पाप जघन्य

मानवता को

रखे ताक पर

बना हुआ नर वन्य

देख - देख 

अन्यों का पैसा

जलता है संसार।


रिश्ते-नाते

धर्म -कर्म में

पैसे का ही काम

ब्याह-बनिज

श्मशान घाट तक

सबका पैसा राम

आदि मध्य 

 सबमें ही पैसा

ढलता भी संसार।


शुभमस्तु !

01.10.2025● 9.30 आ०मा०

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मंगलवार, 30 सितंबर 2025

माता का दरबार सजा है [ गीत ]

 599/2025


        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


माता का

दरबार सजा है

भक्त साधना करते हैं।


आठ भुजाएँ

शोभित माँ की

पुष्प दीप फल अर्पित कर

कन्या एक

खड़ी मंदिर में

हर्षित मुद्रा दृष्टि उधर

अस्त्र -शस्त्र

हाथों में सज्जित

संकट सारे हरते हैं।


सिंहवाहिनी

माता दुर्गा

शुम्भ - निशुम्भ

और महिषासुर

हनन कर रहीं

चंड- मुंड का

लेतीं पल में मातु प्राण हर

दुर्गम असुर

गया है मारा

जो भी अन्य विचरते हैं।


रक्षा करें

मात जगती की

असुरों से भय भारी है

हाथ जोड़ हम

करें प्रार्थना

जनता बहुत दुखारी है

जो आए

ले शरण मात की

सारे भक्त उबरते हैं।


शुभमस्तु !


30.09.2025●3.45 आ०मा०

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सोमवार, 29 सितंबर 2025

चेहरे [ व्यंग्य ]

 598/2025

 

 ©व्यंग्यकार

 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 ये दुनिया चेहरों का चमन है। जिसमें भाँति- भाँति के चेहरे चमक रहे हैं।खिलते हुए चेहरे,मुरझाए हुए चेहरे, लटके हुए चेहरे,चौकन्ने चेहरे, चिकने चेहरे,रूखे चेहरे,भूखे चेहरे,सूखे चेहरे,लल्लू चेहरे,चालू चेहरे,टमाटर चेहरे, बैंगन चेहरे, शरीफ चेहरे, फ़क़ीर चेहरे, उलझे हुए चेहरे,सुलझे हुए चेहरे,अन्यमनस्क चेहरे,प्रसन्न चेहरे, उलटा तवा चेहरे,गुलाबी चेहरे। जितने चेहरे उतने भेदोपभेद।कहीं शुष्कता कहीं स्वेद।चेहरों से गहराया हुआ संसार। चेहरों के कर्ता की महिमा अपार ! 

 अलग - अलग साँचों में ढाले गए चेहरे। कुछ बड़े जागरूक कुछ लगे बहरे।देह रूपी किले के मोहरे ,प्रवेश द्वार।अंदर बाहर का एक जीवंत आईना।सबकी अलग -अलग रंगत ,अलग -अलग सङ्गत। कुछ ऐसे भी चेहरे कि झुलसे हुए से। सब कुछ कहे दे रहे बिना एक शब्द बोले हुए। लग रहे नापे हुए तोले हुए। कुछ चेहरे इतने घाघ भी कि पता न लगे सावन फाग भी।कुछ चेहरों से बरसती हुई आग। कहीं दिखा मेरी आँखों से झाग ही झाग। कुछ चेहरे कि कविता गाते हुए ,तरन्नुम में लहराते बल खाते हुए। कुछ तो ऐसे की दुलहिन की तरह शर्माते हुए। 

 चेहरों के कर्ता की कारीगरी का मैं कायल हूँ। उसकी हर अदा का लॉयल हूँ।कभी- कभी किसी चेहरे की छवि से घायल हूँ।हे कर्ता तू चित्रकार भी तू मूर्तिकार भी है। मुझे तुझसे भक्ति है,दुलार भी है।हे विधाता तूने चेहरों से ये दुनिया सजाई है।यह तेरी माया है कि मौज मजाई है।एक-एक चेहरे को मैंने पढा है,जो-जो मेरे सामने आया है और तूने गढ़ा है। 

  आदमी के चेहरे में उसकी विगत योनि की परछाईं है।जो तेरे ही चतुर चटुल हाथों की करिश्माई है।मैंने बड़ी बारीकी से यह पाया है किसी का बंदर का तो किसी का भैंसे का बनाया है।कोई गधा है तो कोई फूलों से लदा है। किसी-किसी पर टपकता हुआ धोखा है।कोई कोई बड़ा शातिर है कि जो दिखता है ,वह नहीं होता है।किसी पुरुष में स्त्री का चेहरा मुस्करा रहा है, तो किसी स्त्री में पुरुष गहरा रहा है। उसकी बड़ी न सही छोटी-छोटी प्यारी- प्यारी - सी मूँछें हैं,जो मानो किसी गिलहरी की पूँछें हैं।कुछ चेहरे निरे छूंछे हैं ,जैसे लगते कोई गली कूँचे हैं। कितने ही चेहरे घोड़े और बैल हैं,कोई कोई रंगती तो कोई धुमैल हैं। किसी के चेहरे दर्द टपकता - सा है और उधर कोई वहम में भटकता- सा है।किसी की झलक मात्र से मन अटकता सा है,और उधर किसी एक से खटकता - सा है।नहीं है कोई प्रियता किसी- किसी चेहरे में।किसी को निहार कर मन डूब जाता है गहरे में। रहस्यमय कोई किसी का सपाट चेहरा ,जहां किसी भी रंग का रंग नहीं लहरा। खतरनाक हैं कुछ चेहरों की बनावट ,जैसे हो कोई जन्मजात क्रिमनल की भरे हुए चौधराहट।कोई कोई बड़ा सुलझा-सुलझा- सा तो एक अन्य चेहरा बड़ा उलझा -उलझा -सा।किसी-किसी ने अपने को चेहरे की चिलमन से छिपाया पर वह नहीं जानता कि कहाँ तक छिपा पाया!

 ये चेहरे हैं एक खुली हुई किताब। जिन्हें बताना नहीं पड़ा कभी अपना हिसाब -किताब।पर कुछ चेहरों ने दिया है धोखा ही धोखा। वे बाहर से लगते रहे भरा हुआ खोखा किन्तु खोला गया तो मैं देख समझकर चौंका।बन्द किताबों को किसने पढ़ पाया है,ऐसा ही कुछ भेद कुछ चेहरों में समाया है। हे विधाता ये तेरा चेहरों का चित्र- विचित्र चमन है। जिसे देख- देख कर मेरा मन उत्सुक है प्रमन है, तुझको मेरा शतशः नमन है । 

 शुभमस्तु ! 

 29.09.2025●4.45 आ०मा० 

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जीवन है तप -साधना [ दोहा गीतिका]

 597/2025  


       



©शब्दकार

डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जीवन  है तप - साधना , वचन तोल कर  बोल।

वृथा  नहीं   गारत    करे, रहे  सदा अनमोल।।


कर्मयोनि     ही     जानिए,    रहे  भोग से दूर,

श्रेष्ठ   कर्म  जो भी  करे,   रहे   न डाँवाडोल।


कुछ   नर  ऐसे   लालची,चलें कुपंथ   कुराह,

कटु   कुनैन -  सा  बोलते,  देते हैं विष घोल।


संघर्षों   की   वह्नि   में,तपे  मनुज जो  आज,

सोने- सा     निखरे  वही, मिले उसे अनतोल।


बोए  बीज   बबूल  का,   उगता    नहीं रसाल,

अनगिनती  कंटक   मिलें,फटे जन्म का ढोल।


कथनी -करनी  एक   हों,कर  ले आत्म सुधार,

तन  रँगने  से  क्या  मिले,ऊपर का यह खोल।


'शुभम्'  जहाँ से  तू  चले, आता है फिर लौट,

दुनिया में  देखा  यही, यह   धरती  है गोल।


शुभमस्तु !


28.09.2025● 10.15 प०मा०

                   ●●●

वचन तोल कर बोल [ सजल ]

 596/2025  


     


समांत        : ओल

पदांत         : अपदांत

मात्राभार    : 24.

मात्रा पतन  : शून्य


©शब्दकार

डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जीवन  है तप - साधना , वचन तोल कर  बोल।

वृथा  नहीं   गारत    करे, रहे  सदा अनमोल।।


कर्मयोनि     ही     जानिए,    रहे  भोग से दूर।

श्रेष्ठ   कर्म  जो भी  करे,   रहे   न डाँवाडोल।।


कुछ   नर  ऐसे   लालची,चलें कुपंथ   कुराह।

कटु   कुनैन -  सा  बोलते,  देते हैं विष घोल।।


संघर्षों   की   वह्नि   में,तपे  मनुज जो  आज।

सोने- सा     निखरे  वही, मिले उसे अनतोल।।


बोए  बीज   बबूल  का,   उगता    नहीं रसाल।

अनगिनती  कंटक   मिलें,फटे जन्म का ढोल।।


कथनी -करनी  एक   हों,कर  ले आत्म सुधार।

तन  रँगने  से  क्या  मिले,ऊपर का यह खोल।।


'शुभम्'  जहाँ से  तू  चले, आता है फिर लौट।

दुनिया में  देखा  यही, यह   धरती  है गोल।।


शुभमस्तु !


28.09.2025● 10.15 प०मा०

                   ●●●

सुधा [ चौपाई ]

 595/2025


                


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


काव्य-    सुधा    का    जो   रस पीता।

दीर्घ   आयु     का     जीवन      जीता।।

काव्य-साधना         सरल       नहीं    है ।

विरलों  में    कवि      एक    कहीं    है।।


शब्द -  साधना     का       तपसी  जो।

करता  है     माँ     की      भगती  को।।

भक्ति -  सुधा    की     अविरत  गंगा।

करती   है      तन-मन    को       चंगा।।


कर्म -    सुधा        से        अमर    बनाएँ।

उच्च    शिखर        का    पथ  चमकाएं।।

हीन        कर्म       में      जीवन     बीते।

रहते      नर       रीते         के        रीते।।


मधुर       वचन      की    बोली   वाणी।

सुधा           समान     बने    कल्याणी।।

रसना     सुधा      वही     विष   बेली।

नष्ट   कर      रही      जगत      अकेली।।


सुधा      सदृश       गंगा     का   पानी।

अघ -  ओघों        की     आग   नसानी।।

जीव-जंतु           जो      प्यासे      होते।

सुधा -  बिंदु     पीते        अघ      खोते।।


स्रोत  सुधा   का        सोम      हमारा।

ओस      रूप     में     झरता      प्यारा।।

खग     चकोर        सम्मोहित      भारी।

किरण  सुधा  की        चाहे     प्यारी।।


'शुभम्'      सुधा   है       दुर्लभ    भारी।

दानव        चाहें          अति     आचारी।।

पुण्य -  प्रताप     सुधा        का    दाता।

वही    ध्वजा       गिरि       पर  लहराता।।


शुभमस्तु !


28.09.2025●9.00प०मा०

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संविधान के दुश्मन [ नवगीत ]

 594/2025


       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


संविधान के

दुश्मन

टसुए बहा रहे हैं।


नहीं  चाहते

कोई 

उनसे   आगे  जाए

रक्त चूसना

उनका

उनको बेशक भाए

सरकारों के

पुतले

पथ पर दहा रहे हैं।


चुम्बन चरण

चाहते अपना

हर उस जन से

जो पिछड़ा है

दीन-हीन है

निज बचपन से

धनिकों को

केवल 

धनुए वे सुहा रहे हैं।


समतावादी

केवल नारा

भाषण तक है

भीतर से

वह खरा खोखला

अब भौंचक है

पर्दे में 

गोमांस महकता

मंत्र गूँजते नहा रहे हैं।


शुभमस्तु !


27.09.2025●10.00 प०मा०

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शनिवार, 27 सितंबर 2025

थोथा चना बजता घना [ नवगीत ]

 593/2025


  


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


थोथा चना

बजता घना

सब जानते हैं।


खोमचा जिसका बड़ा है

राह   रोके वह खड़ा  है

भीड़ नकली

शोर का ये दौर आया

श्वान भौंका गुरगुराया

बजी ढपली

जादूगरी अपनी दिखाते

बोल से जन को रिझाते

हम मानते हैं।


जातिवादी  आदमी  है

भ्रष्टता फिर लाज़मी है

क्या करोगे

भाषणों के   बोल   ऐसे

अमिय को दें घोल जैसे

जलदी तरोगे !

इस ठौर पर खूँटा गड़ेगा

जदपि वह  पूरा  सड़ेगा

जिद ठानते हैं।


साहित्य को क्या हो गया है

आदमीपन   खो   गया   है

नीति टाँगी

जो  न  होना माँग ऐसी

हो भले ऐसी  की तैसी

वीतरागी

शक्ल सूरत आदमी की

दूर  हटती   सादगी  भी

जल छानते हैं।


शुभमस्तु !


27.09.2025●2.15प०मा०

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ढूँढ़ने का शौक मुझको! [ नवगीत ]

 592/2025




©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आदमी में 

आदमी को

ढूँढ़ने का शौक मुझको।


देह से सब

एक जैसे

किंतु भीतर भेड़िया है

जीभ में रस

नींव में विष

आदमी  आहेरिया  है

धत्तूर के 

हर फूल को भी

सूँघने का शौक मुझको।


एक ही

दर से निकलते

कौन छोटा या बड़ा है

जो करे 

कुछ कर्म ऊँचा

कनक का बनता घड़ा है

पीत पीतल

सौर सोना

जाँचने का शौक मुझको।


तीन गज की

इस जमीं  में

है जरूरत मात्र सबको

अभिजात्यता में

ऐंठता क्यों

भूल जाता  ईश - रब को

शब्द के

हर नाद को

है श्रवण का शौक मुझको।


शुभमस्तु !


27.09.2025● 1.15 प०मा०

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शौक कुछ ज्यादा चढ़ा है! [ नवगीत ]

 591/2025


    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


खून पीने का

तुम्हें ये

शौक कुछ ज्यादा चढ़ा है!


चाहते तुम

शीश चढ़कर

बैठना ऊपर शिखर पर

'वे' करें

सेवा तुम्हारी

पाँव छूएँ हर  डगर दर

जान लो

हर पेड़ का कद

लहरता ऊपर बढ़ा है।


स्वच्छंदता की

वायु में सब

पेड़ साँसें  ले  रहे हैं

खाद भी

उनको मिला तो

चोटियों को छू रहे हैं

कर्म ही

अभिजात्यता है

कर्म ने गढ़ को गढ़ा है।


रक्त लेते

गैर का जब

जाति तब जाती कहाँ है

जाति पूछो

होटलों में 

तब नहीं लगता धुँआ है ?

लोटते चूहे

उदर में

आँत जाती फड़फड़ा है।


शुभमस्तु !


27.09.2025●1.00 प०मा०

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रंजिशों में जी रहे हैं! [ नवगीत ]

 590/2025


 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दे सनातन की

दुहाई

रंजिशों  में  जी  रहे  हैं।


'वे' बड़े  हैं

'अन्य ' छोटे

बन गए हैं धुर विरोधी

जन्म से वे

श्रेष्ठ सबसे

समझते खुद को सुबोधी

क्यों बढ़े

आगे पिछल्ले

घूँट  लोहू  पी  रहे  हैं।


मर रहे

बन आत्महंता

जलन की सीमा न कोई

टंगड़ी मारें

गिरा दें

आत्मा  भी   रही    रोई

अधिकार को

निज बाप की

जागीर समझे सी रहे हैं।


कौन  अगड़ा

कौन पिछड़ा

रेस के मैदान आओ

भेद की दीवार

देकर

बीते दिनों को भूल जाओ

चाहते तुम 

रौंदना बस

इसलिए   छी - छी कहे हैं।


शुभमस्तु !


 27.09.2025●12.30प०मा०

                    ●●●

अश्व कहते वे स्वयं को [ नवगीत ]

 589/2025


         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अश्व कहते 

वे स्वयं को

और सब दिखते गधे हैं।


योग्यता का

ले रखा है

शीश निज ठेका जिन्होंने

सेव कहते

वे स्वयं को

अन्य   को  गूँगे  खिलौने

चाहते हैं

वे बढ़ें बस

साधना   से   वे  सधे  हैं।


संविधान के

निपट विरोधी

आरक्षण के दुश्मन ऐसे

केवल 

वही चाहते जीना

हथकंडे   हैं  कैसे -कैसे

जन्मजात

श्रेष्ठता चाहते

अगड़ेपन की लेज बँधे हैं।


अनुचित होता

यदि आरक्षण

सरकारें क्यों उसे मानतीं

सबका ही 

विकास करना है

क्या सरकारें नहीं जानतीं?

शोषण हुआ

आज तक जिनका

परवशता की आग रँधे हैं।


शुभमस्तु !


27.09.2025● 12.00मध्याह्न

                 ●●●

शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

उपहास [ कुण्डलिया ]

 588/2025

    

                  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

करना   गुरुओं   का  नहीं,कभी मित्र उपहास।

छिपा  वहाँ  अपमान  है,हरता हृदय-उजास।।

हरता   हृदय-उजास,  मान  के  वे अधिकारी।

शिष्य   सदा  ही  दास,और  तुम रहो पुजारी।।

'शुभम्' आग   समरूप,हवा  मत  ऐसी भरना।

करना   सदा  प्रयास, मान गुरुवर  का करना।।


                         -2-

करता    है     उपहास   जो, होता   है बदनाम।

शुद्ध नहीं जब भावना,ज्वलित हृदय का काम।।

ज्वलित   हृदय  का काम, सुयोधन ने यह झेला।

हुआ      महासंग्राम,   शवों    का चलता रेला।।

'शुभम्'   चुभे कटु  शब्द,द्रौपदी के क्या मरता?

अंधों  के  ही   अंध,बाण   उर   में  निज करता।।


                         -3-

वाणी       ऐसी    बोलिए,   उर  में  करे उजास।

लेशमात्र    करना    नहीं,   धूल    भरे उपहास।।

धूल     भरे   उपहास,    शहद   वाणी  में घोलें।

कहने   से   पल   पूर्व, तुला  पर  खुद की तोलें।।

'शुभम्'    न कटुता   पूर्ण,  नहीं  वाणी कल्याणी।

भले   सत्य    हो    तथ्य, बोलना मधुरिम वाणी।।


                         -4-

रसना  में  ही  स्वर्ग   है, रसना   नरक निवास।

मान   मिले   सम्मान    भी, करे  वही उपहास।।

करे      वही    उपहास,   प्रेम   की   गंगा ऐसी।

संभव   हों   सब  काम,सफलता मिलती वैसी।।

'शुभम्'   कभी  भी  मित्र, नहीं रसना से डसना।

अहि  का   यही चरित्र,  मधुर ही रखना रसना।।


                         -5-

होता    है  उपहास    तो,  भूल    न पाए मित्र।

उपहासी     उपहास    से,  विकृत   करे चरित्र।।

विकृत     करे  चरित्र,   आग   की  दे चिनगारी।

सुलग    उठे   फिर   इत्र, शेष  फिर रहे उधारी।।

'शुभम्'  मिले उपहास, हृदय   फिर ऐसा   रोता।

बनता   कटु   इतिहास,नहीं फिर वह दिन होता।।


शुभमस्तु !


25.09.2025●9.15प०मा०

                   ●●●

गुरुवार, 25 सितंबर 2025

रीति ये कैसी निराली! [ नवगीत ]

 587/2025


    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


एक पुजता

एक पिटता

रीति ये कैसी निराली!


भावना 

सबकी अलग है

स्वार्थ से पाषाण पुजता

काम निकले

भूल जाए

कान से क्यों शब्द सुनता!

दूध देती

गाय के सँग

काग ने किस्मत बना ली।


पूजते

कुछ लोग रावण

बहुत सारे हैं जलाते

जो स्वयं

रावण चरित के

बाण वे पहले चलाते

जेल से छूटे

मतों से

मान की गठरी सँभाली।


वेश को ही

मान मिलता

नग्नता को कौन पूछे

हो पुलिस

नेता डकैतों की

तनी रहती हैं मूछें

नोट में पावर

पड़ी या

हाथ में पिस्टल दुनाली।


शुभमस्तु !


25.09.2025●2.45प०मा०

                   ●●●

आदमी में आदमीपन [ नवगीत ]

 586/2025


      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आदमी में 

अदमीपन की 

महक कैसे मिलेगी।


ढंग बदले

रंग बदले

वे तरंगें भी नहीं हैं

नाम बदले

काम बदले

आचरण वैसे कहीं हैं!

सादगी में 

सदगीपन की 

चमक कैसे मिलेगी।


चेहरे हैं

या मुखौटे

जान पाया मैं न अंतर

श्वान दल में

भेड़िए हैं

फाँदते   लंगूर  बंदर

नीतियों में

नीतिपन की

चहक कैसे मिलेगी !


चाँद पर

अपने कदम रख

नर मशीनी हो गया है

आदमी से

काम ही क्या

शेष कोई  रह गया  है

कौन रावण

राम किसमें

धमक कैसे मिलेगी!


शुभमस्तु !


25.09.2025● 2.15 प०मा०

                ●●●

कंकरीट के जंगल में [ नवगीत ]

 585/2025


     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कंकरीट के

जंगल में कुछ

दोपायों की होती हलचल।


नहीं समझते

आम स्वयं को

पैसे ने अभिजात्य बनाया

भुनगा  लगता

सड़कों पर जो

बीस मंजिला भवन चुनाया

सूट बूट में

महक रहे जो

लगती बुरी हवाई चप्पल।


हाल हवाई

चाल चुराई

सूखी लकड़ी-से ऐंठे वे

लगते नहीं

कहीं से मानव

बालकनी में हैं बैठे वे

सन्नाटा 

नीचे से ऊपर

भरा हुआ ज्यों कोई दलदल।


आँखों पर 

ऐनक है काली

नहीं दिखाई देता मानव

लतियाते हैं

मजदूरों को

लगता है जैसे हों दानव

चार हाथ की

दुनिया उनकी

दसवीं मंजिल पर है खल-खल।


शुभमस्तु !


25.09.2025●1.15 प०मा०

                    ●●●

उपहास [ सोरठा ]

 584/2025


                      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


उचित नहीं उपहास,शुद्ध हास्य उत्कृष्ट है।

जिसको आए  रास,पात्र देखकर कीजिए।।

मित्र कभी उपहास,गुरुजन से मत कीजिए।

है अपमान कुवास,छिपा  हुआ  उपहास में।।


दुर्योधन - उपहास, द्रुपद सुता ने जब किया।

साथ  नाश  का  वास,महायुद्ध भीषण हुआ।।

यह क्षमता  है  न्यून,सहन करे उपहास को।

उसे कीजिए चून, उर  में  भर  दे क्रोध जो।।


उचित नहीं है मित्र,असमय का उपहास भी।

शुद्ध  हास  का  चित्र, समय   देख आनंद दे।।

उचित  नहीं उपहास,कभी किसी के दुःख का।

बात समझ की खास,समय पात्र सब देखिए।।


करें नहीं उपहास,  जाकर  कभी मसान  में।

करें    ईश -अरदास,   रहना   है   गंभीर ही।।

शुद्ध हास - उपहास,कविता में कविजन करें।

मन  में   भरे   उजास,  हँसते  हैं श्रोता सभी।।


जानें  भेद  अवश्य, हास  और उपहास का।

अनुरंजन है दृश्य,खिले हृदय-कलिका जहाँ।।

करना सदा  अनीति, दुखदायक उपहास जो।

जगे  उरों  में  भीति,  दूषण  दे  परिवेश को।।


करते  यदि उपहास, मत सीमा को तोड़ना।

काट   रहे  ज्यों घास, अर्थ  नहीं  बेकाम है।।


शुभमस्तु !


25.09.2025●5.15 आ०मा०

                  ●●●

मान क्या अपमान क्या? [ नवगीत ]

 583/2025


        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मान क्या

अपमान क्या

कोई बताए!


सब धान 

तुलने हैं

सभी का एक पलड़ा

नौ के

पंसेरी धान हैं

बाकी  न  लफड़ा

बाजरा कोदों

सभी में भेद क्या

कोई बताए !


अपमान की

चादर हटा दी

फाड़ डाली

धूल थी 

जो मान की

सब झाड़ डाली

क्या गधे के

सींग हैं

कोई बताए !


 एक ही पथ

आ गए हो

क्या हुआ अब!

एक ही रथ

जाओगे

क्या करो तब?

एक सम हैं

भेक मछली

कोई बताए !


24.09.2025●1.15 प०मा०

                 ●●●

सम्मान बे ईमान हो गया! [ अतुकांतिका ]

 582/2025




©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सम्मान 

बे ईमान

हो गया  है अब,

गधे घोड़े ऊँट खच्चर

श्वान बकरी भेड़ मच्छर

सब एक ही

पांत में खड़े हैं,

कोई किसी से 

छोटा नहीं

नहीं कोई

किसी से बड़े हैं !


निर्द्वंद होकर 

बीच चौराहे पर

किसी को गाली दो

अपशब्द भी कहो,

कोई चिंता की बात नहीं

बेफ़िक्र रहो,

अब कोई

मान हानि का 

मुकदमा नहीं कर पाएगा,

कर भी देगा तो

न्यायालय से

खाली हाथ लौटेगा

मुँह की खाएगा!


याचिकाएँ

स्वीकार ही नहीं होंगीं,

खाली ही लौटेगी

अतल कूप से बोगी,

अब न कोई मंत्री है

न विधायक या सांसद

न अधिकारी न नेता

चेयरमैन या सभासद

गाय और शेर

एक ही घाट पर

पानी पियेंगे,

गीदड़ और सिंह

एक समान जिएँगे।


सही अर्थों में

अब समानता आई है,

जब न्यायविदों की

यह न्याय की बात 

रँग लाई है,

किसी को प्रत्यक्षत:

गालियाँ देने की

छूट है,

अब कविसम्मेलन से

हट गया शब्द हूट  है,

टमाटर अंडे ही नहीं

जूते चप्पलें फेंकने की भी

छूट है,

पर ध्यान रखना

एक नहीं

दोनों फेंकने होंगे,

यह तो आप

समझते ही हैं

क्या दोनों पाँव के

नहीं दोगे?


शुभमस्तु !


24.09.2025●12.45प०मा०

मानहानि कैसे क्यों होगी! [ नवगीत ]

 581/2025




©शब्दकार

डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'


शून्य हो गया

मान जनों का

मानहानि कैसे क्यों होगी !


गाली दो

आरोप लगाओ

चोर कहो या कुछ भी बोलो

अब होगा

अपराध नहीं वह

अपनी वाणी में विष घोलो

पीना 

नहीं जरूरी कोई

कहलाए क्यों व्यसनी रोगी?


परमहंसता

आई है अब

करो याचिका खारिज़ होगी

खोटी खरी 

खूब अब बोलो

नहीं   कहेगा   कोई  ढोंगी

न्यायालय के 

अतल कूप से

खाली ही लौटेगी बोगी।


लिए टोकरी

मानहानि की

लिए घूमते थे अभिजाती

शरद काल की

ओस हो गई

रही नहीं तिनका भर ताती

एक पांत में 

खड़े कर दिए

जज अधिकारी कंजर योगी।


शुभमस्तु !


24.09.2025●11.45 आ०मा

पोथी क्रय कीं दस हजार में [ नवगीत ]

 580/2025


 

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


पोथी क्रय कीं

दस हजार में

कौड़ी में बिकतीं बेमोल।


हुए गुलाम

डिजीटल के जन

कौन पढ़े अब पोथी खोल

आखर ज्ञान 

नहीं है जिनको

सीख रहे वे भाषा बोल

कहते हैं

अपने को शिक्षित

रद्दी में पोथी अनतोल।


ज्ञान नहीं

जन के दिमाग में

चिप में चुप -चुप चलता है

शेष बचा

मोबाइल सिम में

इम्तिहान  में  ढलता है

पोथी पढ़कर

मरे न कोई

कम्प्यूटर के बजते ढोल।


अब के पंडित

बने डिजीटल

नहीं बाँच पाते पोथी

डिजीटली वे

ब्याह रचाएँ

संतति जनें बनें गोती

निकला 

ग्रंथ जनाज़ा अब तो

डिजिट-डिजिट देती रस घोल।


शुभमस्तु !


24.09.2025●11.30आ०मा०

                ●●●

पोथियों में धूल जमी [ नवगीत ]

 579/2025


  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


पोथियों में 

धूल जमीं

ऑन लाइन ज्ञान है।


चूरन और

चटनी में

पोथियाँ  रो रहीं

पुड़ियों  में

भेलपूरी

अँखियाँ भिगो रहीं

लेपटॉप 

मोबाइल

वही ज्ञान-दान है।


भूल गए वर्ण ज्ञान

गिनती न

पहाड़े याद

नाप तौल

कौन पढ़े

गूगल से फरियाद

कंप्यूटर

बाप बना

सत्य अनुमान  है।


नोट्स हैं न

नोटबुक

लेखन विदा हुआ

डिजीटल हैं

बैंक मनी

खोद दिया है कुँआ

एंड्रॉइड 

तकनीकी

आदमी की बान है।


शुभमस्तु !


24.09.2025●10.45आ०मा०

                  ●●●

दुर्गा माँ नवरूपिणी [ दोहा ]

 578/2025


     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दुर्गा माँ  नवरूपिणी,  महिमा का मकरंद।

यत्र  तत्र    सर्वत्र    है,  दोहाधृत  शुभ छंद।।

हिमगिरि   पर्वतराज  के,घर  में जाई एक।

शैलसुता  देवी  प्रथम,  कहलाई वह नेक।।


ज्ञान और तप दायिनी, ब्रह्मचारिणी  मात।

हरतीं संकट कष्ट को,श्वेत  वसन मय गात।।

लोक  और  परलोक में,करती  हैं कल्याण।

चन्द्रघंटिका  कर  रहीं ,महिषासुर  से त्राण।।


कुष्मांडा माँ शक्ति का,सदा आदि  शुभ रूप ।

अपनी नव  मुस्कान से, सृजन  करें भव यूप।।

कमलासन  पर   सोहतीं,  सिंहवाहिनी  मात।

कार्तिकेय जननी सदा,  देतीं  भक्ति सुजात।।


कात्यायनि  माता सदा, करें  शत्रु बल  नाश।

सुख समृद्धि पोषित करें,नित साहस का प्राश।।

कालरात्रि   तमनाशिनी,  कर  दुष्टों  का  नाश।

भक्तों    की   रक्षा   करें,  दें  शुभता  की आश।।


महागौरि   माता  सदा, तप का दिव्य स्वरूप।

श्यामल   से  गौरी  बनीं, शिव  की कृपा अनूप।।

पद्मासन  में    सोहतीं,  सिद्धिदात्रिका   मात।

शक्ति अलौकिक दे रहीं,निशिदिन साँझ प्रभात।।


माता  के    दरबार  में,  'शुभम्' खड़ा कर जोड़।

कृपा  सिद्धि  वर  दीजिए,नित नव सुखमय मोड़।।


शुभमस्तु !


24.09.2025●4.30आ०मा०

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सोमवार, 22 सितंबर 2025

मनवाने को रूठ गए वे [ नवगीत ]

 577/2025


         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मनवाने को

रूठ गए वे

अपनों से।


पता उन्हें है

कोई

नाज उठाएगा

पूछेगा 

क्यों कर रूठे

समझाएगा

कौन भला 

रूठा करता है

सपनों से।


जिसका 

कोई नहीं

रूठना क्या जाने

जान रहा वह

नहीं 

गीत लोरी आने

चने चबा दे जिनको

उनके

टखनों से।


वनवासी

कोई कब

किससे रूठा है

मिले 

निदर्शन एक

वस्तुतः झूठा है

झुकता कोई

लाड़ प्यार के

वजनों से।


शुभमस्तु !


22.09.2025●5.30प०मा०

               ●●●

दुर्गा माँ [ चौपाई ]

 576/2025


                


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

दुर्गा   माँ       के       रूप     सुहाए।

भक्त   दर्श      को      मंदिर     आए।।

प्रथम    शैलपुत्री        हैं       माता।

भक्त 'शुभम्'   निशिदिन    है   ध्याता।।


 ब्रह्मचारिणी      रूप      तुम्हारा।

दुर्गा माँ      अतिशय     है  न्यारा।।

चन्द्रघंटिका     में        माँ   आतीं।

महिषासुर    को    शीघ्र       नशातीं।।


चौथा        रूप    कुष्मांडा  माता।

आदिशक्ति   का      रूप    सुहाता।।

स्मिति     से         ब्रह्मांड     रचाएँ।

सिंहवाहिनी         आयु       बढ़ाएं।।


रूप    पाँचवां    दुर्गा  माँ   का।

कार्तिकेय जननी    बल दाता।।

सिंहवाहिनी      कमल     विराजें।

भक्तिदायिनी     अनुपम    साजें।।


षष्ठ    रूप      कात्यायनि माता।

दुर्गा माँ  - बल   शत्रु    नशाता।।

साहस  का  प्रतीक     माँ    मेरी।

सुख समृद्धि दें    करें    न    देरी।।


कालरात्रि      तमनाशिनि     मेरा।

दुष्ट नाश    कर       भरें      उजेरा।।

रूप    सातवां   दुर्गा  माँ    का।

भक्तों का रक्षक    शुभता       का।।


अष्टम         रूप      महागौरी  का।

तप से रूप    हुआ   काली      का।।

कंदमूल फल खा    पान   वायु  का।

गंगाजल    से       मिली    दिव्यता।।


सिद्धिदात्रिका     रूप     नवाँ है।

दुर्गा माँ    नित      पद्मासना  हैं।।

शक्ति    अलौकिक    देने    वाली।

सिद्धिदायिनी      मातु    निराली।।


शुभमस्तु !


22.09.2025●10.15 आ०मा०

                   ●●●

करके देख विचार [ गीतिका ]

 575/2025


         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


करके देख विचार, बढ़ रहे अति आचारी।

जीवन  है  दुश्वार,कुपथ  जाते नर-नारी।।


मनमानी है  धर्म,  मर्म  में  हिंसा  भीषण,

खोटे  जिनके  कर्म,वही अब धर्मी भारी।


रही न दृग में  लाज, ससुर  सासें पछताते,

बिगड़ रहे गृह-साज, पतन  की है तैयारी।


अपने ही  सुख हेतु,पिता का मान न कोई,

संतति बनती  केतु,  राहु   बनने  की बारी।


भरे  हुए  अखबार,बढ़ा व्यभिचार भयंकर,

खाली  एक  न  वार, निरंतर दूषण जारी।


पैसा  ही माँ-बाप,श्राद्ध  का नाटक होता,

जीवन  में  दें  ताप,  नारियाँ  पैनी आरी।


बिगड़ गया संसार,स्वार्थ में संतति बिगड़ी,

मात-पिता  लाचार, सृष्टि विकृत है सारी।


शुभमस्तु !


22.09.2025●5.30 आ०मा०

                    ●●●

कुपथ जाते नर-नारी [ सजल ]

 574/2025


         

समांत          : आरी

पदांत           :अपदांत

मात्राभार      : 24.

मात्रा पतन   : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


करके देख विचार, बढ़ रहे अति आचारी।

जीवन  है  दुश्वार,कुपथ  जाते नर-नारी।।


मनमानी है  धर्म,  मर्म  में  हिंसा  भीषण।

खोटे  जिनके  कर्म,वही अब धर्मी भारी।।


रही न दृग में  लाज, ससुर  सासें पछताते।

बिगड़ रहे गृह-साज, पतन  की है तैयारी।।


अपने ही  सुख हेतु,पिता का मान न कोई।

संतति बनती  केतु,  राहु   बनने  की बारी।।


भरे  हुए  अखबार,बढ़ा व्यभिचार भयंकर।

खाली  एक  न  वार, निरंतर दूषण जारी।।


पैसा  ही माँ-बाप,श्राद्ध  का नाटक होता।

जीवन  में  दें  ताप,  नारियाँ  पैनी आरी।।


बिगड़ गया संसार,स्वार्थ में संतति बिगड़ी।

मात-पिता  लाचार, सृष्टि विकृत है सारी।।


शुभमस्तु !


22.09.2025●5.30 आ०मा०

                    ●●●

रविवार, 21 सितंबर 2025

कविता मय संसार है [ दोहा ]

 573/2025


         

     [ छंद,दोहे,गीत,भजन,कविता]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                 सब में एक

गणना       मात्राभार    से, सजता  छंद    विधान।

वर्ण  भार    का   ज्ञान   हो, कविता   बने महान।।

लय यति गति प्रति शब्द की,नियमित हो तब छंद।

बनता    है   निर्दोष    ही,  कविता   दे      आनंद।।


 तुलसीदास   कबीर  ने, लिख-लिख दोहे   छंद।

नीति  ज्ञान   वर्षण   किया,  चहुँदिशि परमानंद।।

नीतिपरक  दोहे   लिखे,  कविवर  विमल  रहीम।

लिखते   हैं   वे  सत्य   ही,  मधुर  कहें  या  नीम।।


विविध   रूप    हैं गीत के, लोक श्रमिक  संसार।

लिखते  कवि  नवगीत भी, जिनका नवल प्रकार।।

गंगा    में     नव गीत  की,  नहा रहे  कवि   वृंद।

पग- पग    बदलें  छंद वे,   बरस  रहा   आनंद।।


भक्त   भजन  में  लीन  हैं,प्रभु आराधन   लीन।

भूल   गए    संसार  को,देह  न यद्यपि   पीन।।

भजन   गान   करता  रहा,भक्त एक दिन-रात।

सदा  जागरण    ही  करे,  संध्या  या कि प्रभात।।


कवि  जो  प्रतिभावान है,कविता करे अबाध।

अविरत  है  यह  साधना,मन को अपने साध।।

कविता  है  साहित्य का, एक सरस  भुव  रूप।

अनुरंजित   मन   को   करे, भरती भाव अनूप।।


                   एक में सब

गीत  भजन  दोहे  सभी,विविध छंद  के  रूप।

कविता  मय   संसार   में, मधु रस   भरे अपूप।।


शुभमस्तु !


20.09.2025●9.00प०मा०

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श्री' बनाम 'श्रीमती' [ दोहा ]

 572/2025


             


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दिवंगतों   के  नाम  के,  पहले 'श्री'  प्रयोग।

अनुचित होता है सदा, किंतु करें  बहु लोग।।

छोड़ा   जिसने  देह को, होता 'श्री' विहीन।

प्राणशक्ति  का  नाम है,तन में 'श्री'नवीन।।


'श्रीमती'  नारी  नहीं, तन  तजने  के बाद।

अज्ञानी  वे  लोग    हैं,  जो   फैलाते  गाद।।

स्वर्गीया स्वर्गीय  ही,लिख  सकते हैं  आप।

माता  दादी  बंधु  हों, अथवा  अपने बाप।।


'श्री' ही  जीवन  तत्त्व  है,तन तजने के  बाद।

उड़ जाता भुव लोक में, रह जाती बस याद।।

जब तक जीवन आपका,तब तक जीवन तत्त्व।

प्राण   फूँकता   देह  में, सत्य  श्री का   सत्त्व।।


जीने   पर    रोटी   नहीं,  मरने  पर  दें खीर।

पूड़ी    हलवा  पाक   से,  बदल   रहे तकदीर।।

श्री का  समझा  भाव जो,मानव वही  समर्थ।

दिवंगतों   के  नाम   से, पहले  है  यह व्यर्थ।।


प्राण   बिना अस्तित्व क्या,सब कुछ श्री विहीन।

जैसे जल से  विलग  हो,गई सलिल की  मीन।।

श्री   का   ही  सब  खेल  है,चले देह की    रेल।

प्राण    तत्त्व   है  शेष तो,  और  सभी   बेमेल।।


'श्री'   का   ही  सम्मान   है, शेष हाड़  या माँस।

तब तक  श्री है देह में,जब  तक चलती  साँस।।


शुभमस्तु !


20.09.2025●6.45प०मा०

                 ●●●

शनिवार, 20 सितंबर 2025

जो होता है हो जाने दो [ नवगीत ]

 571/2025


       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जो होता है

हो जाने दो

सबकी अपनी मनमानी है।


नेता भगवान

हुआ है अब

पीछे-पीछे   चलती  जनता

अब बिना

चढ़ावे नेता को

जनता का काम नहीं बनता

विद्वता साधुता

मात्र वहीं

नैया  जो  पार  लगानी है।


अब उठा जनाजा

शिक्षा का

अब भैंस बना काला अक्षर

सब गिद्ध चील

हैं संसद में

गुर्गे   भी  बने  हुए  मच्छर

अब समाधान

तो सपना है

हर बात खूब  उलझानी  है ।


इन भगवानों के हाथ

देश का

होना  बंटाढार   बड़ा

अंधा बहरा

भगवान हुआ

भरता है अपना रोज घड़ा

उसका क्या

होगा हाल 'शुभम्'

लाचार देश का प्रानी है।


शुभमस्तु !


20.09.2025● 4.15प०

हिंदी का विस्तार हो [ दोहा ]

 570/2025

   

       


      ©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'



मूल  रूप   ही शब्द का,मान्य  रहे है   चाह।

नुक़्ता से क्यों मुक्त हो,उचित नहीं यह राह।।

लिपि बदले बदले भले,शब्द न बदले रूप।

'शुभम्' सत्य  यह  मानता,  उर्दू हिंदी   यूप।।


किसी शब्द के भाल पर,नुक़्ता करे कमाल।

मुक्त करो  तो  भंग  हो,मूल रूप का हाल।।

हिंदी  के अनुरूप ये, उचित  नहीं बदलाव।

ढ  ड के  नीचे  लगे, नुक़्ता  भी  सह चाव।।


हिंदी   एक    समूह  है,  भाषाओं   का  रंग।

सब   भाषाएँ   एक  हो, देती हैं शुभ    संग।।

हिंदी  का   विस्तार हो,  सोच  न हो संकीर्ण।

अपनाएँ  नुक़्ता सभी, भाव न करे विदीर्ण।।


बहुवचनों   के  रूप  में,नुक़्ता है जब  मान्य।

चंद्रबिंदु   ऊपर  सजे, ज्यों जीवन में  धान्य।।

अरबी     उर्दू    फारसी,   से  करता परहेज।

हिंदी  बस  संस्कृत  नहीं,खबर सनसनीखेज।।


अँग्रेजी    अपना   रही,  हिंदी  के भी  रूप।

हिन्दीदां  क्यों  खोदते,  हिंदी  को ही  कूप।।

करें   समझ   विस्तार  तो,हिंदी करे विकास।

हिंदी     वाले  ही   बने,  दुश्मन ऐसे खास।।


आओ   हिंदी  के लिए,करें ठोस कुछ  काम।

बहस   वृथा  होवे  नहीं, वही राम हैं   श्याम।।


शुभमस्तु !


20.09.2025●11.45आ०मा०

                  ●●●

हर साल जलाते क्यों रावण ? [ नवगीत ]


569/2025


  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


हर साल जलाते

क्यों रावण

यह बतलाओ !


जिस रावण को

अमरत्व दिया

रघुनंदन ने

उस जनक सुता से

पाक हुआ

स्वर्णिम मन ने

पुतला उसका

क्यों जलवाते

यह बतलाओ!


जिनके मन में

रावण बैठा

वे नायक हैं

मारते वही हैं

अग्निबाण

विष -सायक हैं

तुम ही तो

अब के रावण हो

यह बतलाओ!


घर - घर 

रावण हैं

सूर्पनखाएँ हैं

गर्जते मेघ-से

मेघनाद

उल्काएँ हैं

देखी निज

ग्रीवा झाँक सत्य

यह बतलाओ।


शुभमस्तु !


20.09.2025●10.45आ०मा०

                    ●●●

[11:51 am, 20/9/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

गुरुवार, 18 सितंबर 2025

संतान [ कुण्डलिया ]

 568/2025

    

                


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

करते  विनती  ईश  से,  मिले  शुभद  संतान।

वंश   वृद्धि    होती   रहे,  देना  प्रभु वरदान।।

देना   प्रभु   वरदान,ख्याति दुनिया में   छाए।

कुल का हो शुभ नाम, पिता का मान  बढ़ाए।।

'शुभम्'  जननि  का  दूध, लजाने से वे   डरते।

संतति  रहे    प्रबुद्ध, वंदना   प्रभु  से   करते।।


                         -2-

जैसा   जिसका  कर्म  हो,फल उसका  संतान।

मात-पिता    के    मर्म  से, उपजे पुत्र महान।।

उपजे     पुत्र     महान,    सुताएँ   रमा दुलारी।

खेलें   आँगन   बीच, भरें नित ही किलकारी।।

'शुभम्' न करना  काम,कभी कुछ ऐसा-वैसा।

फले   आम से   आम,  मधुर रसपूरित जैसा।।


                         -3-

चाहत    शुभ  संतान  की, देना  नहीं कपूत।

सूरज - सा  जगवंद्य  हो,यद्यपि एक प्रभूत।।

यद्यपि एक   प्रभूत, ज्योति जग में चमकाए।

मात -पिता कुल  नाम, ध्वजा ऊँची फहराए।।

'शुभम्'  पिता  का मान,सदा ही देता  राहत।

राम  भरत  या  श्याम,तभी पूरित हो  चाहत।।


                         -4-

मानव   या  खग  ढोर  सब, जन्माते संतान।

हो गुणज्ञ  यह  तत्त्व  की,ऊँची बात महान।।

ऊँची   बात   महान, न   संख्या जैसे मछली।

चन्द्र  सूर्य - सा  मान,नहीं मेघों की बिजली।।

'शुभम्'   करे  कल्याण,वंश का बने न दानव।

संतति   शुभद  प्रमाण, सदा ही रहती मानव।।


                            -5-

माता      को  जो   पूजती,  श्रेष्ठ वही  संतान।

आजीवन  निज  पितृ का,करे नहीं अपमान।।

करे   नहीं   अपमान,  वंश   में  नाम   कमाए।

खोले  प्रगति    वितान, समय को नहीं  गँवाए।।

'शुभम्' वही  है   धन्य,पिता संतति जो   पाता।

जननी     वही   अनन्य,पूज्य कहलाए    माता।।


शुभमस्तु !


18.09.2025●5.30 प०मा०

                      ●●●

कैसे क्या बात करें! [ नवगीत ]

 567/2025


     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नियम -नियंताओं की 

कैसे क्या बात करें !


डर लगता है

अँगुली उधर

उठाने में

भला इसीमें

देखें चुप

रह जाने में

बात चलाएँ

नहीं 

न कोई घात करें।


नियम दूसरों की

ख़ातिर 

ही बनते हैं

नहीं स्वयं पर

चलते

या न उभरते हैं

कह दें

नीम बबूल

दिवस को रात करें।


चोर - चोर

मौसेरे भाई होते हैं

खाते-पीते 

अलग-अलग

वे सोते हैं

हाँ जी 

हाँ जी कहें

 न उनको लात करें।


शुभमस्तु !


18.09.2025●3.45 प०मा०

                   ●●●

नियम -नियंता बनाम नियम-हंता [ अतुकांतिका ]

 566/2025


     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नियम-नियंता की

बात ही कुछ और है,

क्या आपने किया कभी

इस बात पर गौर है?

दूसरों के लिए

वह कुछ भी  नियम बनाए,

अपने पैने अंकुश से

पीलवान हाथी को चलाए!

जहाँ चाहे खड़ा करे

जहाँ चाहे बिठाए!

पर जब अपनी बारी आए

तो नियम भूल जाए!

वही नियम- नियंता

नियम हंता बन जाए!


यह लोकतंत्र है

यहाँ लाठी ही 

वशीकरण मंत्र है!

जिसके हाथ में 

मजबूत लाठी है,

भैंस उसी की

कहलाती है।

हम और आप 

उसी लोकतंत्र की 

भैंस हैं,

जहाँ -जहाँ 

वह चरायेगा

वहाँ- वहाँ भैंस क्या

यम का भैंसा भी

चर  जायेगा।


यहाँ चोर-चोर 

मौसेरे भाई होते हैं,

जो मरघट में

लाशें बोते हैं,

उन्हें उसी फ़सल का 

इंतजार है,

लठाधारियों को 

कुर्सी का बुखार है।


शुभमस्तु !


18.09.2025● 2.00 प०मा०

               ●●●

पुराने अखबार-सी खबरें [ नवगीत ]


565/2025


 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


पुराने अख़बार-सी

खबरें 

अनपढ़े रख दीं गईं हैं।


कौन किसके साथ

स्वेच्छा से

पलायन कर चुकी है

सेठ की कुतिया

बड़े से श्वान के सँग

झाड़ियों में छिपी है

मुस्कराते

छवि चित्र में

नेताई जम-सी गई है।


आज सोना फिर

बड़ी लंबी

छलाँगें भर गया है

भाव चाँदी का

कुलाँचें 

हिरन जैसी कर गया है

कृषक की सब

सब्जियाँ

अब आसमां में चढ़ गई हैं।


ट्रम्प अब भी

ट्रम्प चालों से

नहीं कम बाज आया

हँस रहा

सारा जमाना

टेरिफों से कुनमुनाया

कौन सी है

ख़बर नूतन

खोजने को बढ़ गई हैं।


शुभमस्तु !


18.09.2025●12.15प०मा०

                   ●●●

[2:02 pm, 18/9/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

अभ्यास [सोरठा]

 564/2025


             

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


व्यक्ति नियम से नित्य,करता है अभ्यास जो।

बने वही   आदित्य,  अंबर   में चमके   सदा।।

बनता  श्रेष्ठ   सुजान,जड़ कर ले अभ्यास  तो।

सिल   पर बनें   निशान,रगड़-रगड़ रस्सी चले।।


भर    देता  नवरंग,नित्य नियम अभ्यास  का।

अगणित  सभी  विहंग,ज्यों उड़ते हैं शून्य  में।।

नित्य किया अभ्यास,ऋषि-मुनियों ने योग का।

जगत   करे  आभास, बने   महाज्ञानी   वही।।


यदि   करते  अभ्यास,पढ़ते  विद्या छात्र  जो।

न   हो   जगत  उपहास, बनते हैं विद्वान   वे।।

कवि करता अभ्यास,कविता के बहु छंद हैं।

सबको   आए   रास,छंद -विज्ञ बनता वही।।


अनथक रुके न राह,पद से पद कहता यही।

करता   वाहो - वाह,  चलने का अभ्यास ये।।

करते नित्य प्रयास,मंजिल भी उनको मिली।

त्याग दिया अभ्यास,बैठे जो द्रुम छाँव   में।।


वही   प्रगति  का मूल, संस्कार अभ्यास है।

पाती सागर  कूल, सरिता जो चलती   रहे।।

थम जाना है   मौत, सार यही अभ्यास   का।

चमक उठे कलधौत,अपनी गति चलता रहे।।


बनें सुविज्ञ सुजान,आओ हम अभ्यास से।

पथ   को  कभी महान,नहीं अधूरा छोड़ते।।


शुभमस्तु !


18.09.2025●10.00आ०मा०

                   ●●●

तापसी रूपसि तुम्हें प्रणाम

 563/2025


 


दिव्य लोक की  वासिनि हो तुम

विनत भाव  में   रमती   हरदम

सम्मोहन  में   बाँध    लिया   है

हमने यह   स्वीकार   किया   है

रमा या कि   सरस्वती  सु नाम

तापसी   रूपसि   तुम्हें प्रणाम।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


शुभमस्तु !


17.09.2025 ●10.45 आ०मा०

                    ●●●

सजती हूँ [ नवगीत ]

 562/2025


              


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सजती हूँ

 नित्य सँवरती हूँ

संतुष्ट कभी क्या होती हूँ?


उनसे पूछा

लगती कैसी

वे बोले   जैसे  हूर कोई

विश्वास नहीं

उनका आया

खुद लगती हूँ अमचूर कोई

ये क्रीम लिपस्टिक

रूज़ सभी

भर-भर अलमारी सोती हूँ।


उनसे बेहतर

मेरी साड़ी

क्या खूब कँटीले नैना हैं

स्पंजी 

भरी-भरी देही

मरदों की मारक सेना हैं

देखती 

रूपसी अन्य कहीं

नौ -नौ आँसू भर रोती हूँ।


दर्पण कहता

हो एक तुम्हीं

इस धरती पर तुम सुंदरतम

तब चाल 

बदल जाती मेरी

बढ़ते जाते ठनगन के बम

मैं देख 

नहीं सकती बेहतर

अंसुओं से मुखड़ा धोती हूँ।


शुभमस्तु !


16.09.2025●5.00प०मा०

                 ●●●

वर्जित करती यह अंगुलिका [ नवगीत ]

 561/2025



©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


वर्जित करती

यह अंगुलिका

सारे दिन अर्जित करती है।


मोबाइल पट पर

खट-खट कर

लेखनी कुशल बन जाती है

लिखती कविता

वह व्यंग्य कभी

बनती लेखक की थाती है

गति चक्र

घूमता लगातार

सर्जन में नित्य सँवरती है।


यह अँगुली ही है

आँख कान

यह हाथ पैर भी है मेरा

मन बुद्धि चेतना

प्राण सभी

मेरे जीवन का घन घेरा

सब भूख प्यास

इसमें बसती

दिन रात प्राणता भरती है।


चालित मैं

इससे होता हूँ

जब चाहे तभी जगाती है

कितना भी जागे

'शुभम्' वहाँ

किंचित यह नहीं उबाती है

स्वप्नों में

भाव भरे मन में

तरणी -सी पार उतरती है।


शुभमस्तु!


16.09.2025●4.00 प०मा०

                   ●●●

संविधान परिवार का [ दोहा ]

 560/2025


          

      [माता,पिता,पुत्र,पुत्री,परिवार ]


 ©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


             सब में एक

माता ने   संतति  जनी,संतति  रहे   कृतज्ञ।

आजीवन   सेवा    करे,   ईश्वर  वह सर्वज्ञ।।

माता  के उपकार का ,  जन्म-जन्म प्रतिशोध।

दे न सके  संतति कभी, रहे सदा यह  बोध।।


पुत्र पिता   का अंश है,वही  चलाए   वंश।

उसका  यह कर्तव्य है,दे न जनक को दंश।।

आत्मज  कहते  पुत्र को,लेता वह आकार।

पिता  चाहते  हैं सदा, सुत   हो वंशाधार।।


मात-पिता  की   बात  है, इच्छा  ही आदेश।

सदा पुत्र   को  चाहिए,  उर  में  करे   प्रवेश।।

पुत्र जनक-सम्मान की,करे न किंचित हानि।

होता  वही  सुपूत  भी,रखे पिता की कानि।।


पुत्री   घर   की   आन  है,  रमा रूप साकार।

दो कुल की वह ज्योति भी,नवजीवन-आधार।।

पुत्री   से   संसार    है,  बढ़े  वंश   की   बेल।

हाँडी   सत आचार  की,समझ न नारी   खेल।।


नहीं  चाहते   एकता,   और  न घर   में  मेल।

खंडित कर परिवार  को,खेल रहे कुछ  खेल।।

संविधान    परिवार का,  नेह ऐक्य   सम्मान।

तत्त्व  अवांछित  चाहते, खंडित  करें  विधान।।

                  एक में सब

पुत्री हों   या पुत्र हों,  सब  जन   हैं  परिवार।

पिता   और माता युगल, जीवन   के आधार।।


शुभमस्तु !


160.9.2025●10.00आ०मा०

उग आया सोम [ गीत ]

 559/2025


              


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'



प्राची में पूनम का

उग आया सोम।


अस्त हुए 

अस्ताचल में

दिनकर हैं मौन

शांत हुआ

कलरव भी

सोया है पौन

प्राची से

पश्चिम तक

श्याम हुआ व्योम।


सरिता के 

जल तल पर

कलकल है मंद

मानो कवि

कहता हो

चौपाई छंद

जाग उठा

सन्नाटा

स्पंदित हर रोम।


आओ चलें

लहरों का

देखें हम खेल

चन्द्र बिंब

चला रहा

क्रीड़ा की रेल

प्राणों में

हुआ 'शुभम्'

अनुलोम विलोम।


शुभमस्तु !


16.09.2025●5.15 आ०मा०

                   ●●●

सोमवार, 15 सितंबर 2025

हिंदी [ चौपाई ]

 558/2025


              


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


हिंदी   हिंद      देश  की   आशा ।

नहीं न्यून   किंचित  तृण   माशा।।

घुट्टी    में     माँ    हमें     पिलाती।

आ से    अम्मा   बोल   सिखाती।।


हिंदी   ही       संस्कार     हमारा।

जीवन का    हर   मिले   किनारा।।

जननी       जन्मभूमि      जन्माती।

माँ  की  भाषा    सुमन  खिलाती।।


हिंदी   का        चरित्र     चतुरंगा।

फहराती   जो    ध्वजा     तिरंगा।।

हिंदी     अपना      मान     बढ़ाए।

सदा प्रगति -  पथ  पर   ले  जाए।।


हेय   नहीं    अपनी    यह  हिंदी।

शुभता  की   प्रतीक   है    बिंदी।।

मौसी     कभी    न   माता होती।

माँ    की    ममता   में   हैं  मोती।।


मातृभूमि     माँ     को    ठुकराए।

हिंदी  का    क्यों   भक्त  कहाए।।

वैज्ञानिकता  से      भर      झोली।

निर्मित   करती        रंग - रँगोली।।


बावन    वर्ण      सुशोभित  हिंदी।

वृथा न इसकी   किंचित    चिंदी।।

सहज सरल संस्कृत    की   जाई।

वही    आज      हिंदवी    कहाई।।


'शुभम्'     चलें    हिंदी   सिखलाएँ।

निज भाषा   के   गुण   नित  गाएँ।।

कविता   लिखें      गीत     चौपाई।

विविध     छंद  की     ममता     पाई।।


शुभमस्तु !


14.09.2025●11.45प०मा०

                  ●●●

मुखड़ों में मुस्कान [ गीतिका ]

 557/2025


  


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फसल   खेत     में    हरी-हरी     है।

मुखड़ों  में    मुस्कान     भरी     है।।


कोमल    घास     देख   दृग   हरषे,

बिछी    हुई    मखमली     दरी  है।


आश्विन   मास    गगन   है   निर्मल,

लहराती   अति     मंद    चरी    है।


कोकिल     मौन    पड़ी   बागों   में,

काँव-काँव  ध्वनि  बड़ी    खरी  है।


बढ़ता  नित    शीतत्व     धूप   का,

वर्षा    से      बदली     उबरी    है।


ठुमक-ठुमक    पथ   जाती   बाला,

लगता     कोई     चली     परी  है।


हुआ   शरद का 'शुभम्'   आगमन   ,

निर्मल    जल   से   भरी   सरी  है।


शुभमस्तु !


14.09.2025●11.00प०मा०

                   ●●●

फसल खेत में [ सजल ]

 556/2025


    

समांत          : अरी

पदांत           : है

मात्राभार      : 16.

मात्रा पतन    : शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फसल   खेत     में    हरी-हरी     है।

मुखड़ों  में    मुस्कान     भरी     है।।


कोमल    घास     देख   दृग   हरषे।

बिछी    हुई    मखमली     दरी  है।।


आश्विन   मास    गगन   है   निर्मल।

लहराती   अति     मंद    चरी    है।।


कोकिल     मौन    पड़ी   बागों   में।

काँव-काँव  ध्वनि  बड़ी    खरी  है।।


बढ़ता  नित    शीतत्व     धूप   का।

वर्षा    से      बदली     उबरी    है।।


ठुमक-ठुमक    पथ   जाती   बाला।

लगता     कोई     चली     परी  है।।


हुआ   शरद का 'शुभम्'   आगमन ।

निर्मल    जल   से   भरी   सरी  है।।


शुभमस्तु !


14.09.2025●11.00प०मा०

                   ●●●

रविवार, 14 सितंबर 2025

हिंदी ही प्रज्ञान [ दोहा ]

 555/2025



      

[हिंदी,भाषा,बोली,साहित्य,प्रयोग]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                   सब में एक

हिंदी   अपना    ज्ञान  है, हिंदी  ही  सम्मान।

हिंदी  के    हम  भक्त   हैं, हिंदी   ही प्रज्ञान।।

हिंदी भी   यह  जानती, कौन बड़ा  अनुरक्त।

रचना   हिंदी  में  करे, निज  भाषा का भक्त।।


हिंदी  भाषा   के लिए, सहज समर्पण  धर्म।

'शुभम्' करे दिन- रात ये,अपना पावन कर्म।।

माँ  की  घुट्टी  में  मिली, भाषा हिंदी   एक।

नेह करें निज देश से,भक्ति सहित  सविवेक।।


बोली    उपभाषा   कहें,  ब्रजभाषा   उत्कृष्ट।

मिश्री-सी   मीठी   लगे, मधुर  भाव से   पुष्ट।।

बोली   में  यदि   प्रेम   हो, मिले प्रेम  सम्मान।

 वचन मधुर  सच  बोलिए,जैसे सुखद विहान।।


हिंदी    का साहित्य  हो,  जितना   ही  समृद्ध।

'शुभम्' बने निज देश का,रचनाकार सु-सिद्ध।।

कला  हिंद साहित्य से,जिसे न तृण  भर  नेह।

नहीं   नागरिक   श्रेष्ठ वह,समझ लीजिए  खेह।।


करता    नव्य  प्रयोग  मैं,हिंदी  में  प्रति  वार।

नए-नए  नित  शोध  हों,विविधा का   आगार।।

दैनिक    बोली  में  करें,  हिंदी    सदा  प्रयोग।

निज   भाषा   समृद्ध   हो, मान करें सब लोग।।


                     एक में सब

बोली   है   साहित्य की,हिंदी   भाषा  नेक।

कर प्रयोग इसका सभी,आश्रय लें सविवेक।।


शुभमस्तु !


14.09.2025●8.00 आरोहणम मार्तण्डस्य।

                     ●●●

वाक़् -सिद्ध' [ नवगीत ]

 554/2025


           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रात -रात भर

परखा तेरा

भौं -भौं का भौकाल।


बहुत गलत है

कुत्सा कहना

कुत्ता भी अपमान

वाक़्-सिद्धि

पाई है तुमने

तुम मानव की शान

मुझको कहना है

अब तुमको

'वाक़् -सिद्ध' सौ साल।


चोरों से रक्षा 

तुम करते

जागरूक ही करना

उत्तम है

संदेश तुम्हारा

सन्नाटे को भरना

स्वर से स्वर का

संगम होता

मिली वाक़् से ताल।


'वाक़् -सिद्ध' की

ऊँची पदवी

देता रचनाकार

तुम  भी याद 

रखोगे  कवि को

एक अकिंचन प्यार

'शुभम्' न भूले

भौं -भौं भोंकन

तू ही एक मिशाल।


शुभमस्तु !


14.09.2025●12.45 आ०मा०(रात्रि)

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शनिवार, 13 सितंबर 2025

तुरुप का पत्ता [ व्यंग्य ]

 553/2025 


 

 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 ताश के खेल में भला 'तुरुप' या 'तुरुप के पत्ते' को कौन नहीं जानता! इसमें एक छोटे से छोटे पत्ते को जब तुरुप का दर्जा दे दिया जाता है तो उसका भाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि वह किसी भी बड़े से बड़े पत्ते पर हावी होना चाहता है।यह किसी को भी पराजित करने अथवा पछाड़ने का एक तरीका होता है। वह उसे पछाड़ता और पराजित करता भी है।अपने आलंकारिक रूप में इसे 'ट्रम्प कार्ड' भी कहते हैं। मैं दुनिया के किसी ट्रम्प से परिचित नहीं हूँ, यद्यपि अखबारों और समाचारों में उस ट्रम्प का नाम बहुतायत से लिया और प्रचारित किया जा रहा है। कहा जाता है इन ट्रम्प महोदय में और ताश की गड्डी के ट्रम्प कार्ड (तुरुप के पत्ते ) में कोई अंतर नहीं है। यदि कोई अंतर है भी तो मात्र इतना ही कि ताश की गड्डी में उसे खिलाड़ी चुनते हैं अथवा मान्यता देते हैं ,लेकिन इन ट्रम्प महोदय को भले ही अमेरिका की जनता ने चुना हो ,किन्तु वह तो 'मान न मान मैं सबका मेहमान ' की तर्ज पर बिना बुलाये अपनी चौकी छोड़कर दूसरों के चौके में घुसे आना चाहते हैं। और अपने ट्रम्पत्व के ग्रहण से सबको ग्रस्त कर लेना चाहते हैं। 

  यह ट्रम्पत्व या तुरुपत्व कोई नई बात नहीं है। यह तो अनादि काल से उस समय से चला रहा है जब कमजोर की लुगाई सबकी भौजाई हुआ करती थी। यह परंपरा उस समय से चालू है जब हर बड़ी मछली अपने से छोटी मछली को खाना चाहती थी और खा भी जाती थी। इस समाज की बड़ी-बड़ी मछलियाँ सदैव से छोटी मछलियों को अपना आहार बनाती चली आ रही हैं। अब वह चाहे नेता हो या अधिकारी,मजदूर हो या व्यापारी,नर हो अथवा नारी,बस हो या बैलगाड़ी -ये ट्रम्प कार्ड और तुरुप के पत्ते सब जगह सफलता पूर्वक चले हैं। जाति के स्तर पर सवर्णों ने अपने छोटी माने जातियों पर अपना तुरुप का सिक्का जमाया है। यह एक कटु सत्य है।वे अपने ट्रम्प कार्ड के चलते किसी का विकास नहीं देख सकतीं। वे उन पर हावी रहकर उनका शोषण करती आ रही हैं और अपना तुरुप का पत्ता चलाने में सफल भी हैं। किन्तु धीरे -धीरे जागरूकता और शिक्षा के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण तथाकथित तुरुप के पत्ते फाड़ कर फेंक दिए जा रहे हैं। कोई बड़ा नेता किसी नए नेता को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता ।हाँ,दूसरे दलों की आलोचना करते हुए परिवारवाद में तल्लीन है। अपने बेटे को तो विधायक सांसद या मंत्री बनाना चाहता है,किंतु किसी पड़ौसी को उस रूप में देख पाना उसे फूटी आँख भी नहीं सुहाता।यह भी आधुनिक तुरुपवाद या ट्रम्पवाद है। 

  हर सास और ननद अपनी नवागता पुत्रवधू या भाभी पर तुरुपचाल चलने से बाज नहीं आतीं। अपनी तुरुप का सिक्का चलाने के लिए वे अपने सासत्व या नंदत्व का झंडा बुलंद किए रहती हैं।यह घर -घर की कहानी है ।घर-घर के स्टील के चूल्हों में एक ही एल.पी. जी. की आग जल रही है। करोड़ों घरों में यदि कोई अपवाद मिल जाए तो वह घर या परिवार सम्मान का पात्र होगा। वह घर देव घर होगा,मानव घर नहीं। जहाँ तुरुप का सिक्का न चले ,वह घर क्या ?वह सास क्या ?वह ननद (जो भाभी को आनन्दित न रहने दे : वही न नद)भी क्या ;जो भाभी को चैन से जीने दे ! ऐसी ननद को ननद की परिभाषा से बाहर करना होगा। 

 अपने आप अपने बाप की बहन अर्थात बड़ी बुआ बनना कोई अच्छी बात नहीं है ।ये बड़ी बुआएँ देश दुनिया या समाज में रायता फैलाती रही हैं। उन्हें केवल अपनी तुरुप चाल जो चलनी है।इस परंपरा में तिल मात्र भी कमी नहीं आई है। और अब तो देश के देश अपनी तुरुप चाल के लिए बड़ी बुआ बन रहे हैं।जो प्रवृति कभी मानवीय और सामाजिक स्तर पर थी ,अब वह अंतर राष्ट्रीय हो गई है।

 आइए इन बड़ी बुआओं को जानें और अच्छी तरह पहचानें। देश और हम सभी जाग गए हैं।इसलिए ये ट्रम्प कार्ड दूर भाग गए हैं। अब मित्र !मित्र!! का इत्र सर्वत्र अपने चरित्र का स्वरित्र बजा रहा है।जिसकी मधुरता में भरा संगीत हम सब पहचान भी रहे हैं। हम वह हिरन नहीं हैं,जिसे सारंगी बजाकर सम्मोहित किया जा सके।बहुत चल गईं तुरुप की चालें और ट्रम्प की तालें, हम इतने सीधे भी नहीं कि सीधे समझकर अपनी ग्रीवा ही कटा लें।यदि अपने अंदर कूव्वत है तो किसी ट्रम्प के ताश को ही क्यों अपनायेंगे ?दुनिया बहुत बड़ी है, यदि सामर्थ्य होगी तो दूसरे भी दौड़े चले आयेंगे। 

 शुभमस्तु ! 

 13.09.2025●12.00मध्याह्न 

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...