शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

केसरिया धूप [ नवगीत ]

 698/2025


            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फुनगी पर

बैठी है

केसरिया धूप।


कुम्हलाए दिन

अगहन के

अनभाई रात

हिम कन-सी

जमती है

प्रीतम की बात

बदले हैं

दिनकर भी

भभराया रूप।


नीड़ों में

खग शावक

करते हैं शोर

मेड़ों के 

पीछे कुछ

नृत्य करें मोर

देख लिया

छिप-छिप कर

लगा गए चूप।


अरहर को

पाले की

पड़ती जो थाप

थर -थर कर

कंपित है

याद आए   बाप

भाप उठी

अंबर में

जागे हैं कूप।


शुभमस्तु !


28.11.2025●1.45 प०मा०

                   ●●●

अब हैल्थ डिब्बाबंद है [ नवगीत ]

 697/2025


        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कुदरती 

कुछ भी नहीं

अब हैल्थ डिब्बाबंद है।


कैप्सूलों 

गोलियों पर

चल रहा है आदमी

जीना

अगर कुछ और दिन तो

छल हुआ ये लाज़मी

बेस्वाद हैं

कद्दू करेला

बदला हुआ हरछन्द है।


फ़ास्ट है

अब लाइफ की

हर चाल में नित होड़ है

चंद्रयानी

गति पकड़ता

आदमी  बिन  गोड़ है

दिख रहा है

नासिका को

धुंध में मकरंद है।


कर बनावट से

सजावट

और कुछ की चाह में

गर्व से

उन्नत करे सिर

झूठ  वाहो वाह में

भूल जाता 

चार दिन की

जिंदगी का कंद है।


शुभमस्तु !


28.11.2025●1.00प०मा०

                ●●●

कानून [ सोरठा ]

 696/2025


       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बदलें    त्यों कानून,ज्यों-ज्यों  होते वक्र  जन।

विकट  कूट  मजमून  ,शातिर मानव बुद्धि का।।

डाले   नाक   नकेल,   हाथ  बड़े कानून   के।

पुलिस   रही   नित पेल ,बचें  नहीं डाकू कभी।।


बँधी    पट्टिका   एक,    आँखों   पर कानून   के।

निर्णय   हो  सविवेक,समता  दिखलाती सदा।।

करे       वही   कानून,   आम आदमी  के   लिए।

लगा कान   पर फून, चलता   दाएँ    रोड पर।।


जग   में  पूर्ण    अभाव,होता  यदि कानून   का।

करें   परस्पर   घाव ,  जंगल     होता   देश  में।।

नेताजी       जनतार्थ,   बना   रहे कानून    को।

समझ   रहे   हैं   व्यर्थ,स्वयं  नहीं चलते कभी।।


सबके     लिए   समान,  मुक्ति   नहीं कानून से।

निर्धन   या   धनवान,    कोई  नहीं   विशेष   है।।

पथ पर   नियम  संवार,  चलता   जो कानून के।

बचता   रहे     प्रहार,    रहे   सुरक्षित  देश    में।।


लेशमात्र भी   मीत,नहीं   शिथिलता  क्षम्य   है।

तुम लोगे जग जीत,चलो   नियम - कानून से।।

चलें   नहीं   जगदीश,बिना नियम - कानून के।

झुके चरण में शीश, कण-कण ये गतिशील है।।


बना  हुआ आधार,जन्म -मृत्यु हर योनि का।

करता प्रथम विचार,प्रभु का वह कानून ही।।


शुभमस्तु !


28.11.2025●10.15 आ०मा०

                   ●●●

कुहासा [ कुंडलिया ]

 695/2025


         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

आई   है  ऋतु   शीत की,मंद  भानु का तेज।

माघ पौष  अगहन  सभी ,रहे  सँदेशे भेज।।

रहे सँदेशे   भेज,   जेठ-सा   नहीं  उजासा।

छाएगा   हर  ओर , देश में सघन  कुहासा।।

'शुभम्' रहो  बेफ़िक्र, ओढ़  कर एक रजाई।

बढ़े   कुहासा-कोप, शीत  ऋतु देखो आई।।


                         -2-

छोटे  दिन    रातें    बड़ीं,  बढ़ा धरा पर शीत।

सघन कुहासा छा रहा,लिया ग्रीष्म को जीत।।

लिया   ग्रीष्म  को   जीत, काँपते हैं नर -नारी।

पशु-पक्षी  जल   जीव,  लता तरु हुए दुखारी।।

'शुभम्'   आग का  साथ,घटाए  दिन ये खोटे।

नहीं   चैत्र  वैशाख,   हुए  दिन  सिकुड़े छोटे।।


                         -3-

नारी-नर   भौंचक   सभी,  देख  कुहासा सेत।

बैठे   घेर    अलाव    को,  बतियाते समवेत।।

बतियाते       समवेत,  सुनाएँ   वृद्ध कहानी।

बढ़ता  शीत    प्रभाव, खाँसतीं दादी-नानी।।

'शुभम्' न दिखती गैल,ओस फसलों पर भारी।

ओढ़े   कंबल    शॉल ,   कुहासे   में नर-नारी।।


                         -4-

मफलर  बाँधे    कान  पर, चमके भानु  प्रताप।

चादर   ओढ़े   देह   पर,सघन   कुहासा भाप।।

सघन  कुहासा  भाप,  देखते   मुखड़ा जल   में।

लहरें  उठतीं तेज,   नहीं   दिखता कल-कल में।।

'शुभम्'  रहे रवि  खीझ,काँपते तल पर थर -थर।

बजा    घड़ी    में  एक, फेंकते अपना मफ़लर।।


                         -5-

रातें    सघन  कुहास की, दिन ओढ़े सित शॉल।

लिए    हाथ    में    भानु की,  गोल गंदुमी बॉल।।

गोल     गंदुमी बॉल, खेलता  अगहन  दिन भर।

बना   हुआ   रवि डॉल, कौन  कहता है दिनकर।।

'शुभम्'     देख   कर  लोग, करें कुछ ऐसी बातें।

बदले   सबका   काल, बदलते   दिन   या रातें।।


शुभमस्तु !


28.11.2025● 9.00आ०मा०

                      ●●●

गोलगप्पप्रियता [ अतुकांतिका ]

 694/2025


            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गोलगप्पे

जीभ

चटखारे

बड़े प्यारे

गली के मोड़ पर।


 एक

 अनुशासन में बँधीं

जितनी खड़ीं

'पहले मुझे'

'पहले मुझे'

कहतीं नहीं

चली आईं

घरों से रोड पर।


मिर्च भरती

सीत्कारी

जीभ जिनकी,

और दे दे

पानी खट्टा

मजा आ जाए,

खा रही हैं होड़ कर।


आखिरी है

एक सूखा

और मीठा भी खिला दे,

इम्लिका जल

भर बतासा 

अब पिला दे,

सारे पैसे जोड़ कर।


शौक अपना

स्वाद अपना

जीभ का

संवाद जपना,

गोलगप्पे

लगें अच्छे

सुनी घण्टी

वे चलीं सब छोड़कर।


शुभमस्तु !


27.11.2025●7.15प०मा०

                  ●●●

भुने महकते आलू [ नवगीत ]

 693/2025


        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


साग चने का

सरसों -भुजिया

भुने महकते आलू।


पौष माघ की

शीत सिहाती

कट-कट बजते दाँत

घृत से सनी

बाजरा रोटी

माँग रही है आँत

अगियाने के पास

सो रहा

अपना प्यारा कालू।


शकरकंद की

सौंधी ख़ुशबू

नथुनों को फड़काए

गज़क रेवड़ी

मूँगफली के

स्वाद जीभ ललचाए

कोल्हू पर चख

गर्म-गर्म गुड़

चिपक गया है तालू।


उधर गली में

लगी डिमकने

ढम-ढम की आवाज

जुड़ने लगी 

भीड़ भी भारी

आया है नव साज

लगता  कोई

नेक मदारी

नचा रहा  है  भालू।


शुभमस्तु !


27.11.2025●12.30प०मा०

                  ●●●

अलगनी पर धूप टाँगे [ नवगीत ]

 692/2025


       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अलगनी पर

धूप टाँगे

मुस्कराते  भानु दादा।


ओढ़कर चादर

हिमानी

चल पड़े हैं राह अपनी

थरथराते

हम धरा पर

शीतकारी  देह  कँपनी

पश्चिमांचल 

जा रहे वे

कर रहे आने का वादा।


पौष अगहन

माघ की ही

बात है थोड़ा निभाओ

है विवशता

भी हमारी 

अगर मानव जान जाओ

रंग खेलो

होलिका के

अब बनो मत और नादाँ।


देर से

मुझको जगाए

लाल ऊषा मुस्कराती

क्या करूँ

दिन भी सिमटते

ठंड भी मुझको सताती

जानता

तुमको सताऊं

है नहीं कुत्सित इरादा।


शुभमस्तु !


27.11.2025●11.30आ०मा०

                  ●●●

रातें रजाई में रमी हैं [ नवगीत ]

 691/2025


        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सिमटते दिन

कम्बलों में

रातें रजाई में रमी हैं।


दाँत की पाँतें

बजातीं

कट- कटाहट कट -कटाहट

नाक की नाली

बहातीं

सुरसुराहट - सुरसुराहट

बाजरे के

बूलरे पर

हिम तुषारों की जमी है।


शकरकंदी

गर्म मीठी

सोंधती है  गंध न्यारी

डाल पाटल की

खिली है

जाफ़री की रम्य क्यारी

आसमा से

इस जमीं तक

शीत की शीतल नमी है।


गर्म रोटी

बाजरे की

गुड़-घृती भाने लगी है

साग सरसों की

महक यों

घ्राण में आने लगी है

देख कोहरा

श्वेत बाहर

लगता हमें कुछ तो कमी है।


शुभमस्तु !


27.11.2025●10.45आ०मा०

                      ●●●

फिर भी बढ़ते रहना है [ नवगीत ]

 690/2025


         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आगे का पथ

पता नहीं है

फिर भी बढ़ते रहना है।


जो होना है

होना ही है

पर तारीख हमें अज्ञात

सोच समझकर

बढ़ता जा तू

होनी ही अब लंबी रात

नई सुबह

फिर होगी बंदे

रहे न तन का गहना है।


माया साथ न

जाए किसी के

महल बैंक कारें सोना

रहे न तन पर

धागा किंचित

मचे यहाँ रोना-धोना

राख बने 

या गड़े खाक में

या सरिता में बहना है।


द्वेष बैर

सब छोड़ 

यहाँ के झूठे सारे नाते हैं

प्रेम मंत्र से

जग चलता है

खग 

कलरव कर गाते हैं

उठे कँगूरे

ऊँचे -ऊँचे 

जाने किस पल ढहना है।


शुभमस्तु !


27.11.2025●10.00आ.मा.

                 ●●●

बुधवार, 26 नवंबर 2025

भुवन दिवाकर देव महान [ गीत ]

 689/2025


      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जल तल पर

मुख-बिंब निहारें

भुवन दिवाकर देव महान।


वेला ब्रह्म मुहूर्त

अँधेरा छाया है

घनघोर अभी

इधर उषा की

लाली छाई

उजलाती सर्वस्व सभी

ठिठुर रहे

जाड़े में कितने

नर-नारी है नदी सिवान।


थर-थर थर-थर

काँप रहे जन

कुछ इसका उपचार करें

शीत सताए 

नहीं देह को

आग जलाएँ शीत हरें

केसरिया रँग

घोल दिया है

सरिता में ज्यों कनक समान।


प्राची का यह

रंग सुनहरा

जड़-चेतन में रंग भरे

जागो-जागो

लगो काम में

देख तमस भी दूर डरे

अभी शून्य में

चमक रहे हैं

कुछ तारे ज्यों एक वितान।


शुभमस्तु !


25.11.2025 ●8.30 आ०मा०

                      ●●●

उलझन [ चौपाई ]

 688/2025


          

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


उलझन  में   है      देश  हमारा।

कैसे  बचे    देश    ये       सारा।।

मत  का    लोभी  है   हर   नेता।।

आश्वासन  के       अंडे    सेता।।


घुसपैठिए   बिलों      में       भारी।

फैला  रहे           बड़ी      बीमारी।।

उलझन  में  जनता     है    सारी।

जन- धन    की होती  नित ख्वारी।।


वेश  बदल    कर     वे  घुस  आते।

सब  आधार      कार्ड     बनवाते।।

उलझन ये      पहचान   नहीं  हैं।

देशद्रोह  की     नब्ज़      यहीं     हैं।।


वे     अपराध       हजारों     करते।

दस-दस    मारें     एक   न   मरते।।

उलझन  यही  त्राण     कब  पाएँ।

आस्तीन      के      साँप     नसाएँ।।


बना   बिलों     में      रहते      सारे।

हरी  ध्वजा  के      लगते       नारे।।

उलझन  में    सरकार       हमारी।

उजड़  रही  भारत     की   क्यारी।।


उलझन  से    बाहर      जो आना।

रोहिंग्या    को       दूर      भगाना।।

तभी  देश      का      दूषण   जाए।

जन-जन    बाल     वृद्ध  मुस्काए।।


'शुभम्'   चलो      पहचान     बनाएँ।

उलझन से  जन- मुक्त     कराएँ।।

नहीं  धर्म   की    हैं    हम    शाला।

खाने    वाला        चाट - मसाला।।


शुभमस्तु !


24.11.2025●8.15 आ०मा०

                      ●●●

चंचल चपल चुलबुला बचपन [ गीतिका ]

 687/2025


      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चंचल    चपल   चुलबुला   बचपन।

दिखलाता   है    कितने    ठनगन।।


खेल    खेलना      लगता     उत्तम,

बचपन  से    जीवन    हो  शोभन।


अम्मा    दादी      लाड़       लड़ाएँ,

बाबा   कहें     पौत्र     जीवन-धन।


गिल्ली -डंडा      गेंद         कबड्डी,

कभी   बनाते   किरकिट  के   रन।


गली-गली    में     धूम       मचाते,

बाग-बगीचा       घूमें       वन-वन। 


कहें      पिताजी  पढ़     लो    बेटे,

पढ़ने  में  पर     लगे     नहीं    मन।


'शुभम्'  सुनहरे    दिन   जीवन के,

चकरी-सा    फिरता  है   घन -घन।


शुभमस्तु !


24.11.2025●7.30 आ०मा०

                    ●●●

खेल खेलना लगता उत्तम [ सजल ]

 686/2025




©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समांत          : अन

पदांत           : अपदांत

मात्राभार      :  16.

मात्रा पतन   :  शून्य।


चंचल    चपल   चुलबुला   बचपन।

दिखलाता   है    कितने    ठनगन।।


खेल    खेलना      लगता     उत्तम।

बचपन  से    जीवन    हो  शोभन।।


अम्मा    दादी      लाड़       लड़ाएँ।

बाबा   कहें     पौत्र     जीवन-धन।।


गिल्ली -डंडा      गेंद         कबड्डी।

कभी   बनाते   किरकिट  के   रन।।


गली-गली    में     धूम       मचाते।

बाग-बगीचा       घूमें       वन-वन।। 


कहें      पिताजी  पढ़      लो    बेटे।

पढ़ने  में  पर    लगे      नहीं    मन।।


'शुभम्'  सुनहरे    दिन   जीवन के।

चकरी-सा    फिरता  है   घन -घन।।


शुभमस्तु !


24.11.2025●7.30 आ०मा०

                    ●●●

जीवन [ कुंडलिया ]

 685/2025

     

                  


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

नर  जीवन  अनमोल   है, जो  न समझता मोल।

मानव   तन   के   खोल   में,रहे  ढोल  का ढोल ।।

रहे   ढोल   का   ढोल,   बजाती  उसको दुनिया।

चपटी है   या   गोल,  धरणि    नापे   ले गुनिया।।

'शुभम्'    सदा    बदहाल,   उधेड़ी  रहती सीवन।

फँसे मत्स्य  ज्यों  जाल, वही  है  वह  नर  जीवन।।


                         -2-

चौरासी     लख     योनियाँ, उनमें मानव    एक।

चर  जीवों   में    नारि- नर,   रखते मात्र विवेक।।

रखते    मात्र      विवेक,  नहीं   गर्दभ  या  घोड़ा।

गज   वानर   या   भैंस, ज्ञान   रखते   हैं   थोड़ा।।

'शुभम्'   करे    अविवेक,  देख    लें  बारहमासी।

नर   जीवन ज्यों भेक, नहीं सुख   लख  चौरासी।।


                         -3-

मानव    जीवन    में   कभी,  करना नहीं  गुरूर।

वरना    होगा    एक   दिन,  गर्व  तुम्हारा   चूर।।

गर्व    तुम्हारा     चूर,   महल   ढह जाँय हवाई।

काल    गहे    भरपूर,   भले  हो   लोग -लुगाई।।

'शुभम्  '  न   रहता    रंग, रूप से बन ले दानव।

मत कर जन को  तंग, मूढ़  तू   रह  बस  मानव।।


                         -4-

वानर  मच्छर   कीट   का, जीवन नरक   समान।

दर -दर  भटकें    श्वान  भी,  सूकर पंक  डुबान।।

सूकर     पंक      डुबान, गाय   भैंसें   या बकरी।

खूँटा    रहीं     उखाड़ ,     घूमतीं     जैसे चकरी।।

'शुभम्'  मनुज  तू धन्य,  कर्म कुछ ऐसे नित  कर।

अपनी   योनि    सुधार,   बने   मत मच्छर वानर।।


                         -5-

आओ   निज  सत्कर्म  से, कर लें योनि   सुधार।

जीवन  की  बगिया  खिले, बनें न चोर   लबार।।

बनें    न चोर   लबार , मिलावट  लेश न  करना।

यद्यपि    रहें    सुनार,    धर्म    से   सोना भरना।।

'शुभम्'    न  मानें लोग, उन्हें कितना   समझाओ।

मनुज   देह   में  ढोर,   बनें  क्यों  हम नर आओ।।


शुभमस्तु !


20.11.2025●9.00प०मा०

                   ●●●

गुरुवार, 20 नवंबर 2025

करतूत [ सोरठा ]

 684/2025


                  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


भोग रहा  फल    देश,आतंकी करतूत का।

बदल-बदल कर वेश,घुसते रोहिंग्या कभी।।

उनका   एक   न   रूप,जो चरित्र से हीन हैं।

रूप   दिखाए   धूप,  खुलती है करतूत तो।।


फल   भोगें   माँ-बाप,संतति की करतूत का।

जन -जन  को दे  ताप,आता है  वह एक दिन।।

करे   न   नर करतूत, यदि  चरित्र उत्तम रहे।

क्या   चुड़ैल  क्या भूत,  सुधरें  तेरे आजकल।।


नर-नारी    आबाल,  करते   हैं करतूत सब।

करते   हुए   कमाल ,पाँव   पालने   में दिखें।।

करें   न   कुछ करतूत,करें  नियंत्रित पुत्र को।

लेश   न    विकृत भूत,सुधरें   तेरे आज- कल।।


फन     फैलाए    नाग ,सोने   पर जिनके तने।

फूट  रहे    जन   भाग,  क्रूर   कपट करतूत ये।।

बच    जाते  हैं  साफ, दुष्कर्मी  करतूत    कर।

करतूती  हो   माफ़,  निरपराध    को  दंड हो।।


सभी    देखते   लोग,रँग  काला करतूत का।

कृत का   भोगें   भोग, न्याय -दंड के सामने।।

वही साक्ष्य   है   मात्र,जब करता करतूत तो।

बने   दंड   का   पात्र,यही सोच मन में बसे।।


गया    रसातल   देश,  भ्रष्टों   की करतूत   से।

बदल  रहे   नित   वेश,आस्तीन   के साँप ही।।


शुभमस्तु !


20.11.2025●11.00 आ०मा०

                      ●●●

हुई सुहानी भोर हुई सुहानी भोर [ गीत ] [ गीत ]

 683/2025


          


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सूरज जगा

जगा जड़-चेतन

हुई सुहानी भोर।


प्राची में 

लालिमा अनौखी

अग-जग है रंगीन

चहक उठीं

चिड़ियाँ पेड़ों पर

मौसम हुआ नवीन

पीहो-पीहो

करें बाग में

उड़ -उड़ मोहक मोर।


सरिता में 

प्रतिबिंब मनोहर

भानु रहा है झाँक

सोने-सी हैं

लहरें जल में

कहीं न दिखती पाँक

पूरब पश्चिम

उत्तर दक्षिण

उठती है नव रोर।


वेला ब्रह्म मुहूर्त

नहाते

सरिता  में बहु लोग

खड़े किनारे पर

कुछ बैठे

करते हैं कुछ योग

अमृत वेला का

सुख लूटें

जन मानस हर ओर।

शुभमस्तु !

18.11.2025◆7.30आ०मा०

                  ●●●

जीवन में जब समता आती [ गीतिका ]

 682/2025


      


®शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'



जीवन    में  जब    समता    आती।

ऊँच-नीच    का      भेद   भुलाती।।


परमहंस    मानव       हो     जाता,

दुराचरण     से    विमुख   कराती।


जाति-पाँति      का    भेद   बुरा  है,

सद्भावी   को      शृंग       चढ़ाती।


आत्म  भाव     जीवों     में  बसता,

पाप-ताप   को    शीघ्र     नसाती।


बोधहीन      है     मानव   कितना,

दुर्भावी       के     किले    ढहाती।


लड़भिड़   कर   ऊँचा    बनता  है,

क्यों  न  मनुज को बुद्धि  जगाती।


'शुभम्' किसे समझाओ  कितना,

निम्न  सोच  मनुजत्व    मिटाती।


शुभमस्तु !


16.11.2025 ●7.15 आ०मा०

                     ●●●

ऊँच-नीच का भेद भुलाती [ सजल ]


 

 681/2025


    


®शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समांत          : आती

पदांत           : अपदांत

मात्राभार       : 16.

मात्रा पतन    : शून्य।


जीवन    में  जब    समता    आती।

ऊँच-नीच    का      भेद   भुलाती।।


परमहंस    मानव       हो     जाता।

दुराचरण     से    विमुख   कराती।।


जाति-पाँति      का    भेद   बुरा  है।

सद्भावी   को      शृंग       चढ़ाती।।


आत्म  भाव     जीवों     में  बसता।

पाप-ताप   को    शीघ्र     नसाती।।


बोधहीन      है     मानव   कितना।

दुर्भावी       के     किले    ढहाती।।


लड़भिड़   कर   ऊँचा    बनता  है।

क्यों  न  मनुज को बुद्धि  जगाती।।


'शुभम्' किसे समझाओ  कितना।

निम्न  सोच  मनुजत्व    मिटाती।।


शुभमस्तु !


16.11.2025 ●7.15 आ०मा०

                     ●●●


सफल वही सब लोग हैं [ दोहा ]

 680/2025


  

[कार्य,योजना, विचार,राय,सफल ]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                सब में एक

कार्य   नहीं   वह  कीजिए,करे  नाम बदनाम।

हो   ललाट   ऊँचा  सदा, मिले  शांति विश्राम।।

फल    की  इच्छा  के बिना, करें कार्य हे मीत।

फल  अधीन    है ईश  के, मिले सदा ही जीत।।


प्रथम   बनाए  योजना , करता   है फिर  काम।

मिले  सफलता शीघ्र  ही,सुखद सभी परिणाम।।

प्रबल  सुचिंतित योजना, विफल न होती एक।

सफल   करे परिणाम  भी, करे काम जो नेक।।


मन   में    श्रेष्ठ विचार   का,आविर्भाव पुनीत।

तन-मन को   पावन   करे,रहे   मनुज में  तीत।।

जीवन   में   सु विचार  ही, देता शुभ परिणाम।

मन  की   दाहकता   मिटे, नहीं   सताए घाम।।


नहीं  अयाचित राय का, जीवन में कुछ मोल।

कूड़े में  उत्क्षिप्त   हो, ज्यों अखरोटी खोल।।

राय   उसी  को   दीजिए,  हो  सुमीत संतान।

अन्य न    मानेगा   कभी, करे  अनसुना गान।।


सफल   वही   सब  लोग हैं, चमक रहे जो नाम।

सदा   चमकते    सूर्य- से, उज्ज्वल करता काम।।

सफल   परिश्रम  ही करे, लगन लगी  हो   खूब।

कुचली   जाकर   भी रहे,   हरी-हरी नित दूब।।


                एक में सब

कार्य   योजना  राय का,करते प्रबल विचार।

जीवन   में   वे हों   सफल,   शोभन उपसंहार।।


शुभमस्तु !


16.11.2025● 6.45आ०मा०

                  ●●●

अनुभव [ कुंडलिया ]

 679/2025


               


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                        -1-

करता   रहता   कर्म जो,  रह सक्रिय दिन - रात।

पाता   वही    प्रवीणता,   बनता   कर्म प्रभात।।

बनता    कर्म  प्रभात,  वही  है अनुभव   लाता।

अनुभव  का  पाथेय,समुज्ज्वल जीवन   ध्याता।।

'शुभम्'   रहा   जो   बैठ,शून्य  अनुभव के मरता।

प्रगति पंथ से  रूठ, ज्ञान फल सुलभ न करता।।


                         -2-

अपने जननी-जनक सब, हैं अनुभव - भंडार।

उनसे   ही  सब  लीजिए,  जीवन पथ आगार।।

जीवन   पथ  आगार, काम अनुभव वह देता।

जो   संतति   वह ज्ञान,  पिता-माता  से लेता।।

'शुभम्'   त्याग    दे मूढ़,  अज्ञता देख न सपने।

ले अनुभव की ज्योति, पिता -माता जो अपने।।


                         -3-

अनुभव    के   भंडार   में,  नित  करना संवृद्धि।

जीवन   में   आए   तभी, शांति  सुखद समृद्धि।।

शांति  सुखद   समृद्धि, ज्ञान  को  भरसक  बाँटे।

नहीं   घटे      भंडार,   नहीं    पथ   में   हों काँटे।।

'शुभम्' करे  शुभ   कर्म,  बिगाड़े मत अपना ढव।

बढ़े नित्य नित्य भंडार,सुलभ कर दुर्लभ अनुभव।।


                         -4-

अनुभव    वह   पाथेय है, जीवन  भर दे  काम।

बुरे  समय  में  साथ   दे, पथ   बनता अभिराम।।

पथ     बनता  अभिराम,  नहीं धोखा वह  खाए।

चले   स्वयं   सद राह,  अन्य  को  राह   बताए।।

'शुभम्'    न   मारे  डींग, नहीं कर तू कोरा  रव।

संभव हो   वह   सीख, जिंदगी से नर अनुभव।।


                         -5-

अपने - अपने       पुत्र    को, सब  देते हैं सीख।

स्वावलंब   आधार     से,    नहीं   माँगनी भीख।।

नहीं     माँगनी    भीख,   स्वयं निज राह बनाए।

कंटक   हों     या   शूल,   पार  उनमें   हो जाए।।

'शुभम्'    नहीं     उद्धार, कराते   तुझको सपने। 

भर      अनुभव     आगार,  वही   हैं   तेरे अपने।।

शुभमस्तु !


14.11.2025●4.15 आ०मा०

                    ●●●

बुधवार, 12 नवंबर 2025

आजकल की शादियाँ [अतुकांतिका ]

 678/2025



       


©शब्दकार

©डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्


आजकल की शादियाँ

शादियाँ नहीं

शादियों के नाम पर

अपनी रईसी की 

नुमायश भर हैं ।


किसी की दमकती हुई

महँगी साड़ी

किसी की चमकती हुई

घोड़ा गाड़ी

खिलखिलाते हुए 

बल्बों की झिलमिलाहट

चहकती हुई चिड़ियों की

चहचहाट

टीवी की डिस्प्ले पर

महकते हुए व्यंजन

कहीं चंचल नयनों के

फड़कते हुए खंजन

लकदक सूट में सजे हुए

दूल्हा,

उसके संबंधी।


उन्होंने बनवाईं

पचास तरह की रोटियाँ

अट्ठासी प्रकार की मिठाईयां

शत -शत पकवान 

नाश्ते व्यंजन

वे बनवाएंगे

पचपन प्रकार की पूड़ियाँ

पराँठे दोसा छोले भटूरे

कम से कम 

एक सौ एक प्रकार की

देशी विदेशी मिठाइयाँ

सजवाएँगे,

यही नहीं फलों की चाट में

विदेशी चायना जापानी

फल भी होंगे

लोग खायेंगे कम

सराहेंगे ज्यादा,

यही तो आज की

शादियों का नुमाइशी कायदा।


येन केन प्रकारेण 

धन कमाइए

अपनी संतति की 

नुमाइशी शादियों में 

उड़ाइए,

किंचित भी गुप्ता जी से

कम हो गया 

तो शर्मा जी की नाक ही

न कट जाएगी,

फिर ब्याहली की अम्मा

और सासें किसी की

साँस कैसे रोक पाएंगी,

गली के नुक्कड़ पर

उनकी हेठी नहीं हो जाएगी?


मेरे अभिजात्य जनो !

मेरी बात ध्यान से गुनो

झूठी प्रतिष्ठा में 

बरबाद क्यों हुए जाते हो!

किसी अपने का

गला काटने में

 क्यों नहीं शरमाते हो,

झूठी शान दिखाई 

दे ही जाती है,

जब दुल्हन दहेज की

खातिर ससुरालय में

दुत्कारी जाती है,

और सासों के उलाहनों से

सम्मानित की जाती है।


शुभमस्तु !


11.11.2025●11.15 आ०मा०

                      ●●●

जटिल अंतर्जाल [ अतुकांतिका ]

 677/2025


          


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अंतर्जाल बुद्धि का

अत्यंत ही जटिल है,

एक से एक कुशाग्र

कोई अति कुटिल है,

विराट ब्रह्मांड ।


एक शिक्षक

एक भिक्षुक

कोई पुलिस

कोई चोर,

कहीं कूक

कोयल की

कौवे की

 काँव-काँव कहीं

जंगल में कहीं

सिंह दहाड़ता

करता हुआ जोर।


सबके अलग मस्तिष्क

अलग ही सोच

कोई बहुत सुदृढ़

कोई अति पोच,

पड़ गया वेतन भी कम

ले रहा उत्कोच,

जिंदा माँस नोच -नोच।


सबका अलग अंतर्जाल

प्रकृति का कमाल,

इधर दुनिया में 

हो रहा धमाल,

बवाल ही बवाल।


जितने जन 

उतने मन

उतने अंतर्जाल

आदमी ही आदमी की

खींच रहा खाल,

झूठे ये नाते रिश्ते

सबकी अर्थ ताल,

कहने को धर्म दया

पर सवाल ही सवाल।


आदमी में आदमी का

रंग बना जाति,

जाति जाति कर जिए

जूझता बहु भाँति,

विराटता में संकीर्णता का

क्या ही  ये धमाल,

जटिल अंतर्जाल।


शुभमस्तु !


11.11.2025●9.30आ०मा०

                  ●●●

दो गोल रोटी के लिए [अतुकांतिका]

 676/2025


    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


दो गोल रोटी के लिए

आदमी 

क्या -क्या करे।


अन्याय हो

या न्याय हो

चोरियाँ या ग़बन भी,

करता सभी कुछ

आदमी

दो जून को

हर जतन भी।


एक हो 

फिर चार पाए

घटती नहीं तृष्णा कभी

भूख भी बढ़ती गई

कुछ और खाना

है अभी।


खा गया सीमेंट चारा

आदमी को आदमी

वासना घटती नहीं

आए नहीं कोई कमी।


रोटियों के स्वाद की

कोई नहीं तुलना कहीं

रजत सोना

खूब खाए 

पर नहीं समता  यहाँ,

रोटियों के वास्ते

करता रहा है पाप भी,

स्वार्थ से है जूझता

बेटा न समझे बाप को।


पाप पुण्यों से परे रख

अर्जित करे नर रोटियाँ

चाहना उसकी भयंकर

क्या न करतीं रोटियाँ।


धर्म को देखा न जाना

रोटियों को सत्य माना

मर्म पर पत्थर रखा है

आदमी का क्या ठिकाना!

आज तक इस आदमी को

आदमी भी नहीं जाना,

दीखतीं बस रोटियाँ।


शुभमस्तु !


11.11.2025●5.45 आ०मा० 

                  ●●●

उन्हें पता है ! [ अतुकांतिका ]

 675/2025


                

© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


उन्हें पता है कि

यहाँ दाल गल जाएगी,

मुफ्तखोरी का आलम है

कोई बाधा है न रुकावट,

कुछ भी करो 

कोई करेगा नहीं आहट,

आराम से मुफ्त की खाओ

मौज मनाओ

बच्चे पैदा करो 

और चैन की वंशी बजाओ।


उन्हें पता है कि

किसी के कान पर

नहीं जूं रेंगने वाली,

वेश बदलो

अपना देश बदलो

जरूरी हो तो

केश का स्टाइल भी बदलो,

और नए नाम और

धाम से सीना तान कर चलो।


यहाँ भ्रष्टाचार का 

 बोलबाला है

सचाई और ईमान को

देश निकाला है,

हर चोर उचक्का 

सफल होना ही 

होना है, 

यहाँ किसी बात का

नहीं रोना है

बस अपने मजहबी पौध की

हरी - हरी फसल बोना है।



यहाँ का कुछ फीसद

निश्चित ही गद्दार है,

जिसे लेश मात्र भी

नहीं अपने देश से प्यार है,

पैसे देकर उसे खरीद लो

कुछ भी करवा लो

उसकी इज्जत 

बहन बेटी लेलो,

गुलामी 

इसके रक्त में बसी है,

इसमें जागरूकता की

पूरी कमी है,

इसकी आँखों में

 न पानी है

न दो बूँद बची नमी है,

भविष्य स्वतः दिखाई 

दे ही रहा है, 

यह कथन मैने ही नहीं

हर विचारक ने कहा है।


शुभमस्तु !


10.11.2025●9.00प०मा०

                   ●●●

सराहना [ अतुकांतिका ]

 674/2025


         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्


सराहना से 

मन गदगद हो जाता है

तन फूलकर कुप्पा,

सुनने वाला भी

 जानता है 

कि सराहना में

सचाई का प्रतिशत क्या है!


सराहना की दाल में

झूठ का छोंक

न लगे तो 

सराहना कैसी ?

तभी तो दूर- दूर तक

महकती ऐसी 

हाँडी में 

घर की भैंस की

लवनी खदक-खदक

मोहल्ले भर में 

 गमकती  वैसी।


झूठी सराहना के बिना

छोरे- छोरी का 

विवाह मुश्किल,

दूध की खीर में

मीठा मिलाना ही

 पड़ता है,

तभी घोड़ी का पैर

दूल्हे को लेकर

आगे बढ़ता है।


सराहना

वह भी झूठी सराहना

विज्ञापन की दुनिया की

सर्वस्व प्राणाधार,

उसके बिना 

विज्ञापन बेकार 

निस्सार।


वोट हथियाने के

 हथकंडे

नेताओं के पास,

जनता की प्रशंसा

झूठे आश्वासनों की घास,

चराये जा रहे हैं,

खिलाए जा रहे हैं,

अंधेर तो तब है 

वे सच जानकर भी

सूखी घास खाए 

जा रहे हैं,

खाए जा रहे हैं।


सराहना एक

दमदार गरम मसाला है

जिसने भी उसे पाया है

दाल सब्जी में डाला है,

उसे परचम ही फहराया है

कुछ नया कर डाला है।


सबके वश की 

बात नहीं है

सराहना,

कुछ लोगों को

कुछ प्रजातियों को

इसका अनुवांशिक 

अधिकार पत्र जो मिला है,

तभी तो उनकी जुबाँ पर

बारहों मास पाटल का फूल 

खिला है।


शुभमस्तु !


10.11.2025●8.45 प०मा०

                   ●●●

सपने में [अतुकांतिका ]

 673/2025


           ©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जब तक सपने में हैं

सपना सच ही है

जीवन की तरह,

टूटते ही सपना

सब बिखर -बिखर 

जाता है,

तभी पता लगता है

कि सपना था,

जो टूट गया।


जीवन की 

अतृप्त आकांक्षाएँ

सपना बन

दिखती हैं,

सब कुछ लगता है

जीवंत हँसता गाता जीवन

जाग्रत अवस्था में

सपने धूल धूसरित होते

लोग सोच - सोच कर

हँसते गाते रोते।


देखा गया सपना

भला किसका

 सच हुआ है,

कहीं दिखते

उसे महल दुमहले 

कहीं  आभूषण 

रुपहले सुनहले

रंक राजा बना

कभी बियावान घना।


एक अद्भुत संसार

सपनों का संचार

न कुछ का

कुछ हो जाता साकार

झोंपड़ी में 

महल का आकार।


जीवन का एक आयाम

यह भी

मस्तिष्क का 

कल्पना लोक

व्यर्थ ही आराम हराम।


बच्चे से बड़ों तक

सभी देख रहे सपने

कोई बता सकता है कि

कब हुए ये आपके अपने,

पर अंततः सब 

वही का वही,

क्यों बनाते हो अरे मित्र

अपने दिमाग का दही।


जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति

और तुरीयावस्था

मन की चार अवस्थाएँ,

सभी जन इन्हीं में

जीवन बिताएँ,

बहुत कम हैं वे जन जो

चौथी में उतर पाएँ।


शुभमस्तु !


10.11.2025 ●8.15प०मा०

                   ●●●

जीवन एक उपन्यास [ अतुकांतिका ]

 672/2025


       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


टुकड़े -टुकड़े

जिंदगी को जोड़कर

बहुत सारी कहानियाँ

बनती हैं,

उन्हीं कहानियों में खोजें

एकसूत्रता

क्रमबद्धता 

लय बद्धता 

तो एक उपन्यास

बन जाता है।


जितने जीवन

उतने उपन्यास

एक से एक खास,

आप ही नायक

आप ही खलनायक,

पर दोष दूसरों में देखना

आदमी का स्वभाव है।


उसकी जानकारी में 

वह कभी गलत नहीं होता,

अन्य सभी गलत हैं,

यह सोच भी

उसका स्थायी भाव है 

स्व दोष स्वीकारने का

सर्वथा अभाव है।


आदमी एक 

अबूझ पहेली है,

न कोई इसे

समझा सका

न समझा सकता है,

सबकी समझ से बाहर

हर आदमी 

अपनी गली में नाहर।


जितना समझा गया

उतना उलझता गया

भूलभुलैया ही

भूलभुलैया

जिंदगी भर 

नाचता रहा 

ता ता थैया 

ता ता थैया,

एक अंतहीन उपन्यास।


शुभमस्तु !


10.11.2025●10.00 आ०मा०

                    ●●●

सुख की चाहत [ अतुकांतिका ]

 671/2025



            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


 चाहना मात्र

 किसी और का

कि वह सुखी हो :

इतना सहज भी नहीं

क्योंकि आदमी

सबसे पहले

और सबसे अधिक

स्वयं सुखी होना चाहता है।


कैसे बदले 

वह अपना स्वभाव

सर्प  और  वृश्चिक को

पर-दंशन में ही

परम सुख सुलभ है,

रोता-बिलखता हुआ

दंशित पात्र 

उसके सुख का कारण है।


जीवन की दौड़ में

जहाँ  टंगड़ी मार कर

अन्य को

गिराना ही लक्ष्य हो

आदमी ही 

आदमी का भक्ष्य हो,

वहाँ पर सुखार्थी की

आशा व्यर्थ है।


अपनी नाक कटे

तो कट जाए

पर दूसरे का

शगुन बिगड़ जाए

वहाँ इस मनुजात से

क्या उम्मीद रखी जाए!


प्रसन्न हैं लोग

दूसरे को दुखी देखकर,

यही उनके

 सुखी होने का

एक सुलभ कारण है,

सबसे सस्ता 

और अपना

हर्रा लगे न फिटकरी

सुख और अधिक गहराए !


इस प्रकार के

इस इंसान को

क्या कहा जाए ,

और क्या न कहा जाए!

सब सुखी हों

इस प्रकार की चाहत का

दिखता नहीं उपाय।


शुभमस्तु !


10.11.2025●9.30आ०मा०

                    ●●●

मात -पिता सर्वस्व हैं [ ]

 670/2025


      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 

मात -पिता गुरुजन सभी ,सबसे ज्येष्ठ पुराण।

मर्त्यलोक   में    कौन   है,  इनसे श्रेष्ठ प्रमाण।।


सेवा  जननी-जनक   की, सर्व धर्म  का  सार,

न हो अगर विश्वास  तो,कस कर देखो  शाण।


मात - पिता  की  छाँव में, संतति पलती  नित्य,

वही   नेह   निस्वार्थ   हैं, करें   प्राण का त्राण।


वचन   कभी   बोलें नहीं, करे  हृदय को पार,

चुभ जाए  जो  मर्म  में, असहनीय वह बाण।


करें नहीं  अवहेलना,   मात-पिता  की बात,

वे ही छत  दीवार भी, सकल  विश्व निर्वाण।


मात -पिता  अनमोल  हैं,चुके न उनका मोल,

पता  लगे महिमा  तभी,हो जब प्राण प्रयाण।


'शुभम्' नहीं मन में भरें, क्षण भर को भी खोट,

मात-पिता सर्वस्व   हैं,   बनना    मत पाषाण।


शुभमस्तु !


10.11.2025 ●12.45 आ०मा०

                   ●●●

सर्व धर्म का सार [ सजल ]

 669/2025



          

समांत          : आण

पदांत           : अपदांत

मात्राभार       : 24.

मात्रा पतन     :शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

 

मात -पिता गुरुजन सभी ,सबसे ज्येष्ठ पुराण।

मर्त्यलोक   में    कौन   है,  इनसे श्रेष्ठ प्रमाण।।


सेवा  जननी-जनक   की, सर्व धर्म  का  सार।

न हो अगर विश्वास  तो,कस कर देखो  शाण।।


मात - पिता  की  छाँव में, संतति पलती  नित्य।

वही   नेह   निस्वार्थ   हैं, करें   प्राण का त्राण।।


वचन   कभी   बोलें नहीं, करे  हृदय को पार।

चुभ जाए  जो  मर्म  में, असहनीय वह बाण।।


करें नहीं  अवहेलना,   मात-पिता  की बात।

वे ही छत  दीवार भी, सकल  विश्व निर्वाण।।


मात -पिता  अनमोल  हैं,चुके न उनका मोल।

पता  लगे महिमा  तभी,हो जब प्राण प्रयाण।।


'शुभम्' नहीं मन में भरें, क्षण भर को भी खोट।

मात-पिता सर्वस्व   हैं,   बनना    मत पाषाण।।


शुभमस्तु !


10.11.2025 ●12.45 आ०मा०

                   ●●●

हुई प्रेम-बरसात [ दोहा ]

 668/2025


              

       [वर,वधु,बारात,विवाह,डोली]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                 सब में एक

होता  है  वरणीय    जो, उसे  पात्र वर मान।

निज वधु के अनूरूप  हो, करे नेह प्रतिदान।।

करे   बालिका   साधना,  शिवजी हुए प्रसन्न।

वर माँगो    कहने   लगे, भक्ति   हुई उत्पन्न।।


नारी  वधु माता   करे, नर  का पालन नित्य।

रमा   वही है   शारदा, वही  शक्ति -औचित्य।।

अवगुंठन में  देखती, वधु पति की छवि रूप।

सिमटी बैठी  लाड़ली, सज्जित सेज अनूप।।


सुना  द्वार   पर  आ  गई, उसकी ही बारात।

भोली युवती   दौड़कर, गई लगा कर घात।।

बैंड  ध्वनन बारात  का,सुन  दौड़ीं वर नारि।

बहुत उन्हें   भावन  लगे,करतीं मधुर उचारि।।


मोदक एक विवाह का,सबको रहती चाह।

मीठा या कडुवा लगे,करता फिर भी वाह।।

करता  नहीं विवाह जो,नहीं उसे भी शांति।

होता यदि परिवार तो,मिटे हृदय की क्लांति।।


जिस घर से डोली उठी,   रहा  न अपना   गेह।

अतिथि बनी माँ-बाप की,बदल गया वह नेह।।

डोली उठते   ही   बने,  पति  गृह   से सम्बंध।

 इस क्यारी  की  पौध की,प्रसरित उधर सुगंध।।


                   एक में सब

वधु-वर  सफल विवाह में, जब आई बारात।

पीहर    से   डोली    उठी,   हुई प्रेम-बरसात।।


शुभमस्तु !


       08.11.2025●9.15प०मा०

                      ●●●

शुक्रवार, 7 नवंबर 2025

अनुमान [ कुंडलिया ]

 667/2025


                  


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

होता  है   अनुमान  का,  मापन सदा न सत्य।

हो  प्रत्यक्ष  संज्ञान    से,  औचित्यों  का तथ्य।।

औचित्यों   का     तथ्य, बनाए    गए सुभीते।

मीटर     बाँट  अनेक,    शृंखला    लंबे  फीते।।

'शुभम्'   गलत  अनुमान,सदा ही रहता रोता।

घड़ी  चले अनुकूल,आँक पल -पल का होता।।


                         -2-

मानव  को  अनुमान   से,कभी न आँकें  मीत।

बाहर    से   कुछ  और है, अंदर   से विपरीत।।

अंदर   से     विपरीत,  आचरण   की गहराई।

हो न   शीघ्र   अनुमान,  शत्रुता   और मिताई।।

'शुभम्'   दीखता   नेक, हृदय से कोई दानव।

परखें    खूब   विवेक,  सत्य  में है वह मानव।।


                         -3-

दुनिया  में    अनुमान   के, चलते  हैं नित  खेल।

गलत   सही   होते   सभी,सदा  न शुभता मेल।।

सदा   न  शुभता   मेल,खेल  बिगड़ें   या  बनते।

बढ़ते  विविध  फ़साद,  झूठ   पर मानव तनते।।

'शुभम्' न  सबके   हाथ,  सत्यप्रद कोई गुनिया।

करती   है  अनुमान, नित्य ही  कितने   दुनिया।।


                            -4-

होता   सदा   परोक्ष   है, जन-जन  का अनुमान।

सत्य    रहे  कुछ   और  ही,लगभग वह संज्ञान।।

लगभग    वह    संज्ञान,   इसी से चलती दुनिया।

सदा न  कर में एक ,  धारती   सच   की गुनिया।।

'शुभम्'    कभी  अनुमान,  सत्य की नाव डुबोता।

और  कभी   वह   तथ्य,  फीसदी अनुपम होता।।


                         -5-

अनुभव      से    अनुमान    में,लग जाते हैं  चाँद।

एक    नहीं    दो  चार    भी, महल  बने  हैं माँद।।

महल   बने     हैं  माँद,   तमस   में ज्ञान समाया।

अनहद   में  शुभ    नाद, बदल  दे नर की काया।।

करता 'शुभम्' कमाल, शंभु   का शोभन   अजगव।

करे   त्रिपुर   का   नाश,शंभु का संभव अनुभव।।


शुभमस्तु !


07.11.2025● 7.30आ०मा०

                     ●●●

शब्दों के उद्यान में [ अतुकांतिका]

 666/2025


           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


शब्दों के उद्यान में

मैं खेलता रहा

भूले हुए अस्तित्व को

अपने में मग्न 

संलग्न निज ध्येय में,

वही मेरा यथार्थ 

गंतव्य जो बन गया था।


भटकाया भी गया मुझे

अपने कर्तव्य पथ से

गिराया भी गया सदा

मुझे मेरे रथ से ,

पर मैं रुका नहीं

चलता रहा

और चलता ही रहा

अपना गंतव्य 

पा लेने तक।


बन गईं

बाधाएँ मेरी प्रेरणाएँ

करता रहा 

मैं अनवरत गवेषणाएँ

वही तो थीं मेरी

प्रेरणाएँ

कोई करता रहा

 कांय - कांय

आँयं बाँयं सायं।


नहीं बहा मैं

नदी के प्रवाह के साथ

बनाई गई मेरे हाथों

नई राह 

मन में भरा हुआ था उछाह।


चलो चलें 

अपना रास्ता 

स्वयं बनाएँ

भूले बिछड़ों को

दिये जलाकर

नया मार्ग दिखाएँ।


शुभमस्तु !


06.11.2025 ● 11.00प.मा.

                ●●●

बुधवार, 5 नवंबर 2025

रूप गुनगुना धूप का [ दोहा ]

 665/2025



      

[गुनगुना,धूप,बादल,मेघ,अठखेलियाँ]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                  सब में एक

पीने  से  जल गुनगुना,मिटती गला खराश।

हानि करे जल -शीतता,हो न रोग का नाश।।

मौसम लगे  सुहावना, अगहन का अनुरूप।

तेज  गुनगुना  भावता,सुखद लगे नव धूप।।


धूप देख नर -नारियाँ,बालक वृद्ध  जवान।

आनंदित   हैं  शीत   में, करती नेह प्रदान।।

जेठ  मास की धूप का, सहा न जाए रूप।

उधर देख लो भूमि से, शीतल जल दें कूप।।


बीत गई   बरसात भी, आया  अगहन मास।

फिर भी बादल देख लो,भरें गगन में श्वास।।

बादल छाए  व्योम  में,दुख में कृषक उदास।

फसल करें चौपट खड़ी,तनिक न आए रास।।


समय-समय   की बात   है,मेघ करें खिलवाड़।

सावन-भादों  मास  में,जन-जन में अति चाड़।।

विरहिन   के   संदेश को,ले   जाना पति ओर।

मेघ पत्रवाहक  बनो,   कोयल   करती   शोर।।


करते    हैं  अठखेलियाँ,अंबर में पिक कीर।

दृश्य  मनोरम   सोहता, महके    गंध उशीर।।

बादल   की  अठखेलियाँ, सदा न देतीं  चाह।

पके   धान   गोधूम हों,लगता  अशुभ प्रवाह।।


                  एक में सब

रूप गुनगुना   धूप   का, बादल मेघ   प्रवाह।

करे प्रबल  अठखेलियाँ,कृषक भरे मुख-आह।।


शुभमस्तु !


05.11.2025●4.15 आ०मा०

                    ●●●

सोमवार, 3 नवंबर 2025

धूप क्यों शरमा रही है [ नवगीत ]

 664/2025


       


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


धूप क्यों

शरमा रही है

आ गया है मीत अगहन।


भोर 

अँगड़ाई लिए

अब उठ गई है

एक

पिड़कुलिया

भजन गाती उठी है

दाल 

अरहर में 

उठा सम्प्रीत  अदहन।


बाजरा मकई

चने की रोटियों में

सोंधता  जाड़ा

साग सरसों का

लुभाता

घृत ओढ़ कर गाढ़ा

पहन 

स्वेटर धूप में

क्रीड़ा करे चुनमुन।


दुल्हनें 

दूल्हे  सभी 

सजने लगे हैं

घोड़ियों के

पाँव 

फिर घुँघरू बजे हैं

कुकड़कूँ की

बांग से

गहरा गया है शीत उन्मन।


शुभमस्तु !


03.11.2025●3.00प०मा०

                 ●●●

लगती हो तुम महानायिका [ नवगीत ]

 663/2025


   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जीवन के 

इस उपन्यास में

लगती हो तुम महानायिका।


एक- एक 

प्रकरण में पाया

खंड नहीं कोई भी खाली

दिखती है  छवि

छंदमई तव

विद्यमान तुम भव्य विशाली

गाती लोकगीत

नर्तित हो

मेरे उर की प्रणय गायिका।


पंक्ति-पंक्ति के

शब्द -शब्द में

उपन्यास करता अभिनंदन

बियावान में

ज्यों महका हो

परम प्रीति का सोना चंदन

टपक रहा

लालित्य लवणता

क्या कुछ की तुम नहीं दायिका।


आदि मध्य 

या अंत सभी में

अनुस्यूत रेशम का धागा

बिंदु-बिंदु में

मनके खनके

मेरा सुप्त-

प्राय मन जागा

शांति दायिनी

प्रेम पिपासा

तापों की उन्मुक्त दाहिका।


शुभमस्तु !


03.11.2025●12.45 प०मा०

                     ●●●

निष्ठा [ चौपाई ]

 662/2025


            

 ©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ईश्वर       के     प्रति  निष्ठा   भारी।

भक्ति   पंथ      की    कर   तैयारी।।

सत्य  आचरण      जो    नर  करते।

प्रगति  राह     में  वही      विचरते।।


मात-पिता      में     निष्ठा   रखना।

सेवा का  फल     उसको   चखना।।

निष्ठा-नाश      भक्ति     उर   नाशी।

कृपा करें क्यों    गुरु    अविनाशी।।


निष्ठा-विटप     मधुर    फल  देता।

जो करता वह   फल- रस    लेता।।

निष्ठा   की      बगिया      महकाएं।

स्वाद  भरे  फल नित    प्रति  पाएँ।।


निष्ठा    मय     श्रीराम     सुहाए।

गुरु    वशिष्ठ   उर     से  अपनाए।।

ध्रुव  ने     निष्ठा  से     पद  पाया।

सिंहासन   नृप    का      ठुकराया।।


 कश्यप हिरण्य     असुर  थे  राजा।

निष्ठा      का     बजवाते     बाजा।।

सुत     हरि - निष्ठा   में  रत  ज्ञानी।

माने      नहीं    जनक   अभिमानी।।


निष्ठा  बिना    जगत    कब  चलता।

हो अभाव   मानव     को    छलता।।

गुरु-शिष्यों      की      निष्ठा-क्यारी।

खिले  जगत    में    नव    फुलवारी।।


'शुभम्'     चलो    निष्ठा  अपनाएँ।

जगती में    प्रसिद्धि      नित    पाएँ।।

गुरुजन   मात-पिता      की     निष्ठा।

बढ़ती     जग    में     नित्य प्रतिष्ठा।।


शुभमस्तु !


03.11.2025●11.00 आ०मा०

                     ●●●

करता है जो बिना विचारे [ गीतिका ]

 661/2025


  


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


करता   है   जो      बिना     विचारे।

पछताता    निज      हिम्मत   हारे।।


श्रम    से    स्वेद-सिक्त   नर रहता,

उसने  ही    निज    भाग्य   सुधारे।


परजीवी      का    जीवन   क्या  है,

अपने  काज   न    कभी   सँवारे।


अथक  कर्म      विश्वास   जगाता,

जय-जय    का    जयकार  उचारे।


साहस  से      सीमा     पर  लड़ता,

अनगिनती  अरि  जन   को  मारे।


कूप  खोद  नित  पिता   जल  को,

कहता   नहीं     नीर  कण   खारे।


'शुभम्'   काज  मन से   निपटाता,

जय किरीट   वह   सिर  पर धारे।


शुभमस्तु !


03.11.2025● 5.00 आ०मा०

                      ●●●

श्रम से स्वेद-सिक्त नर रहता [ सजल ]

 660/2025


 

समांत          : आरे

पदांत           :अपदांत

मात्राभार      : 16.

मात्रा पतन    : शून्य।


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


करता   है   जो      बिना     विचारे।

पछताता    निज      हिम्मत   हारे।।


श्रम    से    स्वेद-सिक्त   नर रहता।

उसने  ही    निज    भाग्य   सुधारे।।


परजीवी      का    जीवन   क्या  है।

अपने  काज   न    कभी   सँवारे।।


अथक  कर्म      विश्वास   जगाता।

जय-जय    का    जयकार  उचारे।।


साहस  से      सीमा     पर  लड़ता।

अनगिनती  अरि  जन   को  मारे।।


कूप  खोद  नित  पिता   जल  को।

कहता   नहीं     नीर  कण   खारे।।


'शुभम्'   काज  मन से   निपटाता।

जय किरीट   वह   सिर  पर धारे।।


शुभमस्तु !


03.11.2025●5.00 आ०मा०

                      ●●●

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

अनजान [ कुंडलिया]

 659/2025


                


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                         -1-

बालक   मैं   अनजान   हूँ,हे प्रभु जी    श्रीराम।

कृपा  करो इस दास पर,भजूँ   आपका  नाम।।

भजूँ    आपका   नाम,  बुद्धि   प्रभु  ऐसी  देना।

करूँ    हितैषी   काम, नाव   मेरी   नित   खेना।।

'शुभम्' शरण   में आज,पिता-माता  हो पालक।

महिमा  से   अनजान, आपका     नन्हा बालक।।


                         -2-

आया   था    संसार    में,   सबसे    मैं    अनजान।

मिले  जनक-जननी  सभी,  गुरुजन  श्रेष्ठ महान।।

गुरुजन    श्रेष्ठ       महान,    मित्र   सम्बंधी   सारे।

प्रिय    पत्नी   संतान, प्रणय  सह  नेह      दुलारे।।

'शुभम्' जगत  का  राग,   रंग  जब  मुझको भाया।

अपनाया      संसार ,  जन्म    ले   जग  में आया।।


                           -3-

लेना    मत   अनजान   से, मित्र  कभी  आहार।

पथ   में   हो   या   गेह   में,  पावन  हो आचार।।

पावन     हो    आचार,  किसी  से क्या है आशा।

भरे     स्वार्थ    से  लोग, न   पाले  कभी दुराशा।।

'शुभम्' आप   निज  नाव,सदा जगती में   खेना।

सगा   न  कोई  बंधु,  किसी  से  कुछ मत  लेना।।


                         -4-

मिलते    राही     राह   में, सत पथ से   अनजान।

पता  नहीं    होता    जिन्हें,  निज गंतव्य   महान।।

निज        गंतव्य     महान,    भटकते भूलभुलैया।

गिरते       हैं      जब     गर्त,   चीखते  दैया-दैया।।

'शुभम्'     वहीं   बहु  फूल,बाग में शोभन खिलते।

जिन्हें    राह    का   ज्ञान, अल्पतम   ऐसे मिलते।।


                         -5-

करता    लालच   आदमी ,  बना  हुआ   अनजान।

खा    जाता    धोखा    वही,  समझे  स्वयं  महान।।

समझे      स्वयं    महान, राह  में  भटका   रहता ।

बिना   लिए   पतवार,   खिवैया   सरि में  बहता।।

'शुभम्'    भरे   कुविचार,   गर्त में  जा गिर मरता।

मन   को      रखे    सुधार, वही   पथ  पूरा  करता।।


शुभमस्तु !


30.10.2025● 8.45प०मा०

                      ●●●

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

चुँधियाता सोना हमें रहा है [ नवगीत ]

 658/2025


 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


युग- युग से

चुँधियाता 

सोना हमें रहा है।


मरते दम तक

साँपों ने

है स्वर्ण सहेजा

मिथ्या गाड़

प्रतिष्ठा का ध्वज

 रहा तनेजा

अंध बुद्धि के

चपल करों ने

जिसे गहा है।


कितने आए

चले गए

रहा रोना का रोना

ला न सका

मुस्कान

कभी

यह पीला  सोना

जिसने भी

पाया सोना

वह सदा दहा है।


साँपों से 

भयभीत मनुज

पर डरा न सोना

अशुभ हुआ

मानव को

उसका पाना-खोना

प्रतिमा गहनों

ईंटों से चुन

स्वर्ण लहा है।


शुभमस्तु !


30.10.2025●12.15 प०मा०

                   ●●●

ज्यों चाँदी-सोना [ नवगीत ]

 657/2025


   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


धनिकों की हर चीज

हमें लगती है मँहगी

ज्यों चाँदी-सोना।


खाते या कि

पहनते  होंगे

पता नहीं

दीवारों में

चुनवाते हों

वे लुका कहीं

आम आदमी

को सपना है

उसका होना।


भाव खा रहे

ऊँचे-ऊँचे

क्या  बतलाएँ

तोला भर

लाखों से ऊपर

हमें सताएँ

समझ न पाएँ

दुल्हनिया का

रोना -धोना।


नारी- हठ के

नहीं सामने

कोई टिकता

उसे चाहिए 

केवल सोना

नहीं न सिकता

तभी पड़ेंगीं

सात भवरियाँ

होगा  गौना।


शुभमस्तु !


30.10.2025 ● 11.45 आ०मा०

                   ●●●

सोना और साँप [ अतुकांतिका ]

 656/2025


       


©शब्दकार

डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'


साँपों  का

 सोने से सम्बंध

आजकल से नहीं

युग-युग से है,

सनातन है।


साँपों को सोने से प्यार है

सोना रक्षित और

साँप रक्षक हैं,

इसके लिए वे 

कुछ भी कर सकते हैं,

मार  और मर सकते हैं,

किंतु सोना 

 नहीं तज सकते हैं।


धरती में गाड़े हुए

बड़े-बड़े  स्वर्ण -खजाने

बहुत ही पुराने

सर्प-रक्षित हैं।


सर्पों के लिए

सोने की कोई

उपयोगिता नहीं,

मात्र रक्षा का दायित्व है,

आदमी सर्प की आत्मा में

उसका निर्वाह कर रहा है।


साँप और सोना

आज भी हैं, 

किसी का सोने से

पेट नहीं भरा अब तक,

भूख भी नहीं मिटी,

गड़ा रह गया सोना

एक रहस्य की तरह

ज़मीदोज़,

और साँप फन फैलाए

फुफकार रहे हैं।


शुभमस्तु !


29.10.2025 ● 9.00प०मा०

                      ●●●

मुझे भाता नहीं है [ नवगीत ]

 655/2025


         

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लीक पर चलना

मुझे भाता नहीं है।


धार के ही

साथ 

मुर्दे  बहा करते

प्राण जिनमें

चीर धारा 

कर सँभलते

चेतना का

बोध जिसमें

लोरियाँ गाता नहीं है।


स्वयं घोषित

सूर्य को 

मैंने न माना

यों सितारों को

सभी 

मैं  खूब जाना

आकाश है

विस्तृत बड़ा 

मगर ताता नहीं है।


अस्मिता को

 तुम चुनौती

दे रहे हो

और निज

पतवार किश्ती

खे रहो हो

पर 'शुभम्'

अपने सुपथ 

गंतव्य निज पाता यहीं है।


शुभमस्तु !


28.10.2025●11.30 आ०मा०

                     ●●●

अन्याय के पर्याय हैं! [ नवगीत ]

 654/2025


    


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


पूर्वाग्रहों से

ग्रसित जन

अन्याय के पर्याय हैं।


व्यक्ति की 

छवि को

विकृत करना जिन्हें है

अग्रणी 

जो चल सके

वही भरना  उन्हें  है

धारणा में

धूल धूसरता

कुपित अध्याय है।


मारते

दीवाल में

जो सींग हैं

शून्य में

लंबी 

लगाते पींग हैं

और कहते हैं

स्वयं को

वे दूध देती  गाय हैं।


हाथियों की

गैल को 

जो रोकता  है

मस्तमौला 

चाल को

जो टोकता है

टूट जाती

थूथनी

करते नहीं जो न्याय हैं।


शुभमस्तु !


28.10.2025● 11.00 आ०मा०

                       ●●●

प्यार में खोई युवा जोड़ी [ गीत ]

 653/2025


        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


प्यार में खोई 

युवा जोड़ी

एकांत पल है।


फूल झरते 

पेड़ से 

अद्भुत समा है

घास में यों

प्यार का

आसन जमा है

एक दूजे 

के बिना 

पड़ती न कल है।


बेखबर 

जग से

स्वयं से हो गए हैं

पलक 

चारों बन्द हैं

ज्यों सो गए हैं

जिंदगी के

रूप का

ये भी अमल है।


साथ जीने

साथ मरने 

की कसम ले

बढ़ चले

उस राह पर

प्रण की रसम ले

बसता

हृदय में प्यार 

निर्मल गंग जल है।


शुभमस्तु !


28.10.2025●5.30 आ०मा०

                  ●●●

सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

सब फटाफट में मगन हैं! [ नवगीत ]

 652/2025



 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


 सब फटाफट में

 मगन हैं

वक्त किसके पास है!


ब्रेन में

कम्प्यूटरों की

फिट हुई हैं कुंजियाँ

ब्रेन तो

ठंडा पड़ा है

टनटनाती  पंजियाँ

आदमी है 

दास एकल

ब्रेन खाता घास है।


मारकर झट टंगड़ी

निकलूँ

सभी से अग्र मैं

और पिएं

छाछ पानी 

दिव्य घृत का अर्क मैं

नीति झोंकी

भाड़ में सब

अर्थ से हर आस है।


पत्नी नहीं 

पति की रखे पत

अय्याश से अय्याशियाँ

सुत-सुता को

चाहिए बस

अर्थ   से   शाबाशियाँ

देह से 

आए पसीना

उसको नहीं अब रास है।


शुभमस्तु !


27.10.2025●3.00प०मा०

                    ●●●

पढ़ते थे किताबें प्रेम से [ नवगीत ]

 651/2025


    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


पढ़ते थे

किताबें प्रेम से

वे जन विदा क्यों हो गए?


आदमी का

आलसीपन

नित्य ही  बढ़ता   गया

वह डिजीटल

के लिए

मरु  शृंग पर चढ़ता गया

व्यक्ति श्रम से

यों निरंतर

श्रम जुदा हो सो गए !


कौन

जिम्मेदार है

अब सत्य कहने के लिए

गूगली 

हर बात सच है

अब तथ्य  चुनने के लिए

धूल खातीं

पोथियाँ हैं

जो मित्र थे सब खो गए।


हो सकें बच्चे

अगर पैदा

डिजीटल ही करो

क्यों

 फिजीकल की फ़िकर में

रात अब काली करो

कुंजीपटल की

कुंजियों से

ब्रेन सबके  धो गए।


शुभमस्तु !


27.10.2025●2.15 प०मा०

                  ●●●

बैलगाड़ी का जमाना [ नवगीत ]

 650/2025


           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बैलगाड़ी का

जमाना

अब नहीं है।


चक्र

चरितों का

चपल गति से चला है

नित्य

नैतिक अर्क

तेजी से  ढला  है 

लालसा

धन की बढ़ी

रम ही बही है।


बैंक वैभव

सब डिजीटल

हो गया है

आज 

रिश्तों का समंदर

सो गया है

धर्म के नारे

लगे

क्या धर्म भी है?


खोखले भाषण

सभी

उपदेश झूठे

नियम या 

कानून भी

सब भग्न रूठे

वक्ष में

इंसान के

क्या मर्म भी है?


शुभमस्तु !


27.10.2025●1.30 प०मा०

                 ●●●

मनस कभी तेरा उचटे [ गीतिका ]

 649/2025


    

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


 मनस      कभी        तेरा     उचटे।

रहे       केंद्र     पर     नित्य    डटे।।


बढ़े    परस्पर      प्रिय       संवाद,

मेल      एकता    से    न        हटे।


रीति        सनातन   भंग     न   हो,

उचित  नहीं      मनुजात        बटे।


कर्म      प्रधान       रहे       जीवन,

रहें      मनुज  से     मनुज     सटे।


मन      में  हो      संकल्प     प्रबल,

रहें       जगत      में      छटे - छटे।


एक        रहें        कथनी -  करनी,

पल    भर    को  मन    नहीं  घटे।


'शुभम्'  अहं     से    जो     है   दूर,

मानवता        से       नहीं      कटे।


शुभमस्तु !


27.10.2025●7.15 आ०मा०

                 ●●●

रीति सनातन भंग न हो [ सजल ]

 648/2025


         

समांत        : अटे

पदांत         : अपदांत

मात्राभार     : 14.

मात्रा पतन   :शून्य.


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


 मनस      कभी        तेरा     उचटे।

रहे       केंद्र     पर     नित्य    डटे।।


बढ़े    परस्पर      प्रिय       संवाद।

मेल      एकता    से    न        हटे।।


रीति        सनातन   भंग     न   हो।

उचित  नहीं      मनुजात        बटे।।


कर्म      प्रधान       रहे       जीवन।

रहें      मनुज  से     मनुज     सटे।।


मन      में  हो      संकल्प     प्रबल।

रहें       जगत      में      छटे - छटे।।


एक        रहें        कथनी -  करनी।

पल    भर    को  मन    नहीं  घटे।।


'शुभम्'  अहं     से    जो     है   दूर।

मानवता        से       नहीं      कटे।।


शुभमस्तु !


27.10.2025●7.15 आ०मा०

                 ●●●

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...