✍लेखक ©
☎️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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आज के व्हाट्सएपिया युग में ,जो भी कलमकार थोड़ा सा भी अच्छा लिख रहा है, यदि वह ईमानदारी से पटलों से जुड़ना चाहता है औऱ सक्रिय रहना चाहता है। तो वह प्रातः जागने से सोने तक सुबह से शाम तक दैनिक क्रियाएँ भी सही तरीके से नहीं कर सकता, क्योंकि
वह स्नानागार या शौचालय के लिए भी तब जाएगा , जब कोई टीका टिप्पणी झाड़ देगा। वहाँ भी उसे यह चिंता रहेगी कि अमुक मंच पर समीक्षा करनी है , अमुक का संचालन ।कहीं रचना लिखनी है तो कहीं पढ़नी भी तो हैं। न वह नहा , खा सकेगा न सो सकेगा।
मेरे जैसा बूढ़ा कलमकार जिसे नित्य दिन में भी दो घण्टे सोने को चाहिए , वह क्या करे। किसको खुश करे और किसको नाराज़.?यह आरोप अलग से कि सक्रिय नहीं हैं। अरे भैया !कोई कितना सक्रिय रहे ! हर चीज की एक हद होती है।
इन मंचों ने दिन का दिनत्व और रात का शयनत्व ही छीन लिया है। एक साहित्यकार का सबसे बड़ा सुख है ,उसका लेखन। माना कि वह प्रकाश में आना चाहिए ,लेकिन लाखों वाट की बिजली है। आँखें नहीं फूट जाएँगीं।
उधर एडमीनों का रोना , जो कोरोना का भी बाप है , कि आप सक्रिय नहीं हैं।
आदमी की महत्वाकांक्षा इतनी कि एक -एक सौ सौ मंचों से जुड़कर अपने को
कालिदास औऱ वाल्मीकि
का बाप समझने लगा है।
कमपाउंडर जब सुई लगाने में पारंगत हो जाता है , तो डॉक्टर का बॉर्ड सजाकर अलग दुकान बना लेता है।
बस यही हाल हम कलमकारों का है। कंपोटर से
डॉक्टर बनने का यह चाव उन्हें एक अलग मंच बंनाने
के लिए बाध्य कर देता है और बरसाती मेंढकों की तरह
बिना बरसात बिना तालाब मेढ़क टर्र - टर्र करने लगते हैं और अन्य मेंढकों से यह उम्मीद ही नहीं करते, वरन उन्हें धक्का मार मार कर
तुलसीदास बना देना चाहते हैं। बिना मानसून के ही मेंढक टर्राने लगते हैं।
अब न अधिकांश मंचों की न कोई मर्यादा रह गई है न अनुशासन। जब अनुशासन ही नहीं तो काहे के कलमकार हो भाई। वह स्त्री या पुरुष साहित्यकार कैसे हो सकता है , जिसे अपनी जन्मतिथि भी ज्ञात नहीं।
अथवा उसे ऐसे छिपाया जा रहा है जैसे उनके लिए वर को खोजा जा रहा है ?तो वहाँ तो उम्र कम बताने में ही लाभ है! तारीख महीना सब मिल जाएगा ,पर वर्ष नहीं।
अपने परिचय में सेवा निवृत्त भी लिखेंगे/लिखेंगी औऱ दिखाना ये कि अभी सोलह सावन ही झूले हैं।70 साल तक सावन बदला ही नहीं?
विश्व का अजूबा? गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड में नाम अंकित करने योग्य घटना?
वाह रे ! कलमकारों !! धन्य हो।
निष्कर्ष विहीन निष्कर्ष यह है कि साहित्य से अधिक आज के साहित्यिक अधिक गुमराह हैं। उन्हें साहित्य से पहले अपने व्यक्तित्व पर ध्यान देने की अधिक आवश्यकता है।
जब कलमकार में रंच भी
मंच की रंगकारिता नहीं है ,तो कैसा सृजन ? औऱ किसके लिए?? जो अपने को धोखा देकर सबको अंधा समझ रहे हैं , वे क्या हो सकते हैं, स्वतः
समझने योग्य है??
💐शुभमस्तु!
22.06.2020 ◆5.50PM
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