शुक्रवार, 26 जून 2020

पिताजी की निशानेबाजी [ संस्मरण ]


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✍लेखक ©
 🔫 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम
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यह बात उस समय की है , जब मेरी अवस्था लगभग आठ - नौ वर्ष की  रही होगी।प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त को पिताजी को क्षेत्र के अन्य बंदूकधारियों की तरह छलेसर के जंगल में स्थित 'समर हाउस' में निशानेबाजी के लिए आमंत्रित किया जाता था। जब मैं  बहुत छोटा था ,तब वह अकेले ही साइकिल से जाते थे। इस बार मुझे भी साइकिल के डंडे पर बिठाकर वह 'समर हाउस' पहुँचे।
           करवन नदी या झरना में उस समय खूब सारा स्वच्छ पानी होता था। घर से लगभग तीन किलोमीटर चलने के बाद एक झरना था, कभी कभी  जिसमें नहाने के लिए हम बच्चे लोग जाया करते थे। झरने के ऊपर एक पुल भी बना हुआ था। उसी पुल को जंगल के रास्ते से गुजरने बाद 'समर हाउस' बना हुआ था, जो प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर एक रमणीक स्थल था। जिसमें अनेक प्रकार के सुगंधित फूल वाले पौधे उगाए जाते थे। वैसा ही सुंदर हाउस बना हुआ था, जिसमें कुछ स्तम्भों पर एक गोलाकार छत पड़ी हुई थी। नीचे का फर्श पक्का और सुंदर था। समर हाउस के चारों ओर सुंदर बगीचा था। इस हाउस में वन विभाग के रेंजर आदि अधिकारी भी रहते थे। 
                 लगभग 10-15 बंदूकधारियों को उस गोल समर हाउस में पड़ी हुई गोल मेज के चारों ओर बैठा दिया गया। मैं पिताजी के पास एक कुर्सी पर बैठा यह खेल देख रहा था। सामने लगभग एक फर्लांग की दूरी पर मिट्टी की लाल मटकियाँ बाँसों पर टाँग दी गई थीं। प्रत्येक व्यक्ति को एक निर्धारित मटकी में निशाना लगाना होता था । मैंने देखा कि जब पिताजी की बारी आई तो धायं की आवाज हुई और लक्ष्य मटकी के टुकड़े -टुकड़े हो गए। तालियां बजीं। शाबाश !वाह!वाह !! की ध्वनियां हुईं।     निशाने बाजी पूरी होने के बाद फलों का नाश्ता भी कराया गया। साथ ही जिसे मैं उस समय नहींजानता था कि ये क्या है , उन्हें भी पिलाया गया।मुझे नहीं दिया गया। वह सफेद और गाढ़ा - गाढ़ा पेय पदार्थ लस्सी थी , जिसमें भाँग भी पड़ी हुई थी, दिया गया। पार्टी होने के बाद सभी लोग ससम्मान विदा कर दिए गए।
           पिताजी औऱ मैं घर की ओर लौटने लगे कि घर से पचास कदम ही पहले पहुँचे होंगे, पिताजी ने दगरे की मेंड़ पर अपना बायां पैर टेका ही था कि यह क्या ? फिर उनसे एक पैडल भी साइकिल आगे नहीं बढ़ सकी। मैं डंडे से नीचे आया और घर पर बाबा दादी और माँ को सूचना दी, तब वे उन्हें वहाँ से साइकिल से उतार कर लाए। उन्हें भाँग का नशा हो गया था। उनका वह नशा अगले दिन सुबह को उतर सका। पिताजी घर पर कभी भाँग का सेवन नहीं करते थे , संभवतः इसीलिए वे समर हाउस से घर तक सकुशल पहुँच तो गए , लेकिन जब पैर रुक गया तो एक इंच भी साइकिल को बढ़ाना असम्भव हो गया। ये भी जीवन का एक अनुभव है , जब पिताजी को भाँग का नशा हुआ। यह वाक्या 1962 के आसपास का है। 
 💐 शुभमस्तु! 
 26.06.2020 ◆12.55 अपराह्न। 

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