बुधवार, 3 जून 2020

मजदूर की मजबूरी [ गीत ]


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✍ शब्दकार ©
☘️ डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम'
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मजदूरों      की    मजबूरी   है।
जो    घर   से   इतनी  दूरी है।।

था    नहीं  गाँव  में काम कहीं।
परिजन    को भी आराम नहीं।
उदरेच्छा      हुई    अधूरी   है।
मजदूरों      की  मजबूरी    है।

 भटके  -    भटके  जा दूर बसे।
कुछ काम मिले कुछ दाम हंसे
कुछ  -  कुछ  इच्छाएँ  पूरी  हैं।
मजदूरों     की      मजबूरी  है।।

मालिक   ने बस नौकर  जाना।
इंसान   कभी   क्या मैं माना??
हर   समय   गले   पर छूरी  है।
मजदूरों      की   मजबूरी   है।।

संतति    को  कैसे    दें शिक्षा?
दर-दर     माँगेंगे    वे  भिक्षा!!
तरसे       पत्नी   दो   चूरी  हैं।
मजदूरों       की   मजबूरी   है।।

जब     फैली  जग बीमारी  है।
दो       रोटी    की लाचारी है।।
क्या   खायँ   खिलाएं मूरी है??
मजदू     रों    की   मजदूरी   है।।

💐 शुभमस्तु !

03.06.2020 ◆ 4.00 अपराह्न।

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