शुक्रवार, 26 जून 2020

ग़ज़ल

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✍ शब्दकार©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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ऋतु   वासन्ती  की ये  कोई  हार  नहीं।
कूक रही है कोकिल मगर बहार नहीं।।

 इंसानों  की   देह   धरे  जो   घूम रहे,
 इंसाँ   में  गिनती भी मगर शुमार नहीं।

चिड़िया बंदर  सब  आपस में प्रेम करें,
मानव का  मानव से सच्चा यार नहीं।

भाई  को अब दौलत प्यारी लगती है,
भाई  को अब  सहोदरों  से प्यार नहीं।

चार  दिनों का खेल अँधेरी रातें  फिर,
कोई फ़लसफ़ा सुनने  को तैयार नहीं।

कौन भीड़  में  किसे नसीहत क्यों देगा!
हार  भले हो  मगर हार स्वीकार  नहीं।

'शुभम' बुद्धि ने भ्रमित किया है  इंसाँ को,
दिल को  छू  लें   अब ऐसे  उद्गार   नहीं।।

💐 शुभमस्तु!
21.06.2020◆7.00अप.

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