रविवार, 14 जून 2020

मेरी शिक्षा का श्रीगणेश [ संस्मरण]



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 ✍लेखक : © 
⛳ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 
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            बचपन में मुझे पढ़ने-लिखने में कोई रुचि नहीं थी। गाँव के ही पास के गाँव धौरऊ में एक बड़ी सी पुरानी कोठी में में बेसिक स्कूल था , जिसमें गाँव के बहुत से बच्चे पढ़ने जाया करते थे।किंतु मैं स्कूल में पढ़ने नहीं जाता था।बस घर गाँव में गिल्ली डंडा, कंचों का खेल गुच्ची गुच्ची पाड़ा , गेंद तड़ी तथा गेंद के अन्य खेल खेलता रहता था। मेरे सभी घर वाले : मेरे पूज्य बाबा स्व.श्री तोताराम जी, पूज्य पिताजी स्व.श्री मौहर सिंहजी बहुत चिंतित रहते कि यह पढ़ने नहीं जाता।मेरे पढ़ने न जाने की गाँव भर में चर्चाएँ होने लगीं कि भगवत स्वरूप पढ़ने क्यों नहीं जाता।
           एक दिन मेरे गाँव के ऐसे बच्चे जो दूसरी तीसरी चौथी कक्षा के विद्यार्थी थे , घर पर आए और मुझे बड़े ही प्यार से समझाया कि भगवत स्वरूप स्कूल में चला कर , वहाँ लड्डू मिलते हैं। पढ़ाई भी होती है। लड्डुओं का प्रलोभन मुझे स्कूल जाने की प्रेरणा बना , और भला हो मेरे उन सब सहयोगियों का जिनकी पवित्र प्रेरणा से मेरा स्कूल में प्रवेश होना सुनिश्चित हुआ। 
             यह बात सन 1959 ई.की है। दो चार दिन बाल मित्रों के साथ स्कूल जाने के बाद बच्चों ने बाबा जी और पिताजी से मेरा नाम लिखाने की बात कहीं तो मेरे बाबा मुझे जुलाई 1959 के किसी दिन मेरा प्रवेश कराने के लिए स्कूल में पहुँचे। उस समय मेरी उम्र लगभग सात वर्ष की रही होगी।मेरी उम्र का अंदाजा करके जुलाई की ही तिथि मेरे बाबा जी ने अंकित कर दी। इसीलिए पहले के लोगों की जन्मतिथियाँ जुलाई माह की होती हैं।यह तो बाद में पता चला कि मेरा जन्म पौष माह की अमावस्या की अर्द्ध रात्रि का है। 
          अब नाम तो लिखा ही जा चुका था। उस समय मेरी वास्तविक उम्र भी सात वर्ष थी। अब पट्टी बस्ता , कलम बुदका,एक किताब ,जिसमें हिंदी गणित सभी हुआ करते थे ,खड़िया , काँच का कड़ानुमा हरा हरा मोटा घोंटा (पट्टी को चमकाने के लिए)एक थैले में लटकाकर स्कूल जाने का क्रम शुरू हो गया। मेरे साथी गाँव के चार छः बच्चे नित्य ही मुझे अपने साथ स्कूल ले जाने लगे।उन्हें ये भय था कि कहीं मैं बाद में पढ़ने जाऊँ ही नहीं! इसलिए वे सब अपना कर्तव्य समझकर स्कूल जाते समय घर से मुझे अपने साथ ले जाना नहीं भूलते। मैं आज भी अपने उन साथियों का कृतज्ञ हूँ , जिनकी प्रेरणा और लगन से मुझे विद्यालय जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 
               यह तो बताना मैं भूल ही गया कि मेरे बस्ते में अध्ययन की सामग्री के साथ -साथ और क्या होता था। साथ में एक कपड़े में मेरी माँ मेरे लिए दोपहर का भोजन भी बाँध कर रख देती थीं।जिसे पढ़ाई के समय कोठी के हॉल में रखे श्याम पटों के बीच में छिपा कर रख देते थे। जो कभी -कभी कुत्तों की घ्राणशक्ति से पहचाने जाकर उनका लंच बन जाते थे।
           अब    तो मुझे पढ़ाई अच्छी लगने लगी थी। मेरे उस बेसिक स्कूल में मेरे प्रथम गुरु पंडित विद्या राम शर्मा जी थे, जिनके साथ पूज्य वर मुंशी जी श्री अजंट सिंह जी अध्यापन कार्य करते थे।पंडित जी अपने गाँव टर्रकपुर से और मुंशी जी अपने गाँव अगरपुर से साइकिलों से पढ़ाने आते थे। दोनों ही शिक्षक बहुत लगन और परिश्रम से हमें पढ़ाते थे। कुछ समय बाद पंडित जी के अस्वस्थ हो जाने पर सारे स्कूल का भार मुंशी जी पर ही आ गया, जो सभी पांचों कक्षाओं को अकेले ही पढ़ाते थे। उस समय मैं कक्षा 3 का विद्यार्थी था। मई के महीने में होने वाली लिखित परीक्षा के बाद कुछ मौखिक प्रश्न भी पूँछे जाते थे। मुझे आज भी याद है कि मुंशी जी ने मुझे पूछा कितने नौ उन्तालीस? मैंने झट से खड़ा हुआ और फट से उत्तर दिया कि बीस नौ उन्तालीस ।मुंशी जी के मुख से अनायास ही निकला हत्त ,तीस नौ उन्तालीस होते हैं ।
          एक बार मेरी किसी गलती पर मुंशी जी ने मुझे बहुत पीटा था। लेकिन घर पर बताने के बावजूद मेरे घर से आजकल की तरह कोई मेरी सिफ़ारिश लेकर स्कूल नहीं गया। चौथी कक्षा में आते आते मैंने हिंदी में कविताएं लिखना आरम्भ कर दिया था। 
              रात को मेरे पूज्य पिताजी मुझे गिनती पहाड़े याद कराते थे। कभी- कभी गुस्सा आने पर गाल पर चपत भी लगाते थे । उन्हें गिनती के साथ -साथ 40 तक पहाड़े, अद्धा, पौवा , सवैया , पौना के पहाड़े , मन ,सेर , छटाँक , गज ,फुट, इंच, बीघा , बिस्वा, विश्वान्सी,तोला , माशा ,रत्ती मुँह जबानी याद थे । उन्हें पढ़ाने के लिए किसी पुस्तकीय सहायता की आवश्यकता नहीं थी। यद्यपि वह कक्षा 4 पास मात्र एक साधारण कृषक थें।मेरे बाबा जी के स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रपिता गांधी जी के साथ चले जाने और बार बार की जेल यात्राओं के कारण वे अधिक पढ़ नहीं सके थे।लेकिन उन्होंने मेरे पूज्य चाचाजी डॉ. सी एल राजपूत जी को अपनी मेहनत से पढ़ाकर दो विषय में एम ए और मनोविज्ञान में पी एच डी कराया। चाचा जी 1995 में आगरा कालेज आगरा से मनिविज्ञान के प्रोफ़ेसर पद से सेवा निवृत हुए हैं। 
            इसी क्रम में अपनी प्रारंभिक शिक्षा की एक चर्चा भी आवश्यक समझता हूँ। घर की जिस कोठरी में हम मिट्टी के तेल की कुप्पी जलाकर सोते थे। उसमें कोई भी खिड़की नहीं थी। रात को पिताजी पढ़ाते थे। एक दिन मैं स्वप्न में याद कर रहा था कि सिंधु माने समुद्र , सिंधु माने समुद्र, सिंधु माने समुद्र। यही रट लगाए हुए था। सुबह पिताजी और माँ ने बताया कि भगवत स्वरूप रात में मायने याद कर रहा था कि सिंधु माने समुद्र, बार बार दोहराए जा रहा था। वे हंस रहे थे। मुझे भी याद आ गया कि मैं ऐसा कर रहा था। 
        इस प्रकार मेरी प्रारंभिक शिक्षा का श्रीगणेश हुआ। तब कोई यूनिफार्म भी नहीं थी। वही कमीज और पट्टे का धारीदार पाजामा और कपड़े के बाटा के जूते।ये याद नहीं कि कभी स्कूल जाने से नागा की हो। जब निरंतरता की गाड़ी चल पड़ी तो चल ही पड़ी । शुरू- शुरू में मासिक शुल्क केवल एक आना लगता था। जो शायद जूनियर कक्षाओं में पाँच आने हो गया था। वह जमाना भी क्या जमाना था,  जिसकी आज केवल मधुर स्मृतियां ही शेष हैं। अतीत कभी लौटकर नहीं आता।
 💐शुभमस्तु !
 13.06.2020 ◆7.15 पूर्वाह्न।

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