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✍ लेखक ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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जब मैं तीसरी कक्षा का छात्र था, मेरी अवस्था दस वर्ष की रही होगी।मुझे कविताओं और गीत आदि पढ़ने का बहुत चाव था। उस समय1962 के चीन भारत युद्ध का वीर रस की ओज पूर्ण भाषा में लिखी हुई एक बीस पच्चीस पृष्ठ की आल्हा की पुस्तक मेरे हाथ लगी। जिसे पढ़कर मैं बहुत आनंदित हुआ। पुस्तक किसी को पढ़कर लौटानी थी ,इसलिए आल्हा याद करने के लिए मैंने पूरी पुस्तक एक चौंसठ पृष्ठ की कैपिटल कॉपी में लिख ली। उसे पढ़ता तो बहुत रोमांच होता। आनन्द भी आता। इसी प्रकार जो भी कविता कहीं से मिल जाती ,उसे उतार कर संरक्षित कर लेता। मेरे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पितामह पूज्य स्व.तोताराम जी के जेल के साथी प. भोजदत्त शर्मा ,आगरा की लिखी हुई आल्हा की पुस्तक भी मैंने सहेज रख ली औऱ समय -समय पर उसे पढ़ता। इस प्रकार मेरी पसंद की रचनाओं को संग्रह करने के लिए मेरी 240 पृष्ठ वाली कापियां , जो उस समय चौदह आने की आती थीं, कविताओं से सजने लगीं।
यह सिलसिला लगभग एक वर्ष चला होगा कि अनायास मेरे मन में स्वयं कविता का बीज अंकुरित होने लगा और मन के भाव कागज पर रूपाकार देने के लिए मचलने लगे। वर्ष 1963 चल रहा था कि अनायास मेरे द्वारा एक 8-10 पंक्तियों की रचना मेरी कॉपी के एक पृष्ठ पर साकार हो ही गई। महीना और तारीख मुझे याद नहीं हैं । बचपन से ही मुझे अपनी कॉपी , किताब या अन्य कोई वस्तु को सजाकर सँभाल कर रखने की आदत थी। जो धीरे -धीरे मेरा संस्कार बन गई। मेरी यह आदत आज भी उसी तरह से है , जैसे बचपन में थी। यही कारण है कि मेरी उस समय से आज तक लिखी गई सभी रचनाएँ , जिनकी संख्या लगभग 4000 से अधिक होगी; आज भी सुरक्षित हैं।उन्हीं में से अब तक कुछ खंड काव्य एक महाकाव्य और कुछ स्फुट विधा संग्रह सहित दस ग्रंथ प्रकाशित भी हो चुके हैं।
मुझे प्रकृति को देखकर बहुत आनन्द आता था। इसलिए पावस , शरद ,ग्रीष्म ,पेड़ ,पौधों,लताओं, नदियों , सूरज , चाँद , सितारों ,चिड़ियों ,को लेकर अनायास ही लेखनी चलने लगी। किन्तु आश्चर्य की बात है कि मेरी प्रथम काव्य रचना प्रकृति सम्बन्धी नहीं थी, बल्कि वह एक नीतिपरक औऱ उपदेशात्मक रचना थी। मेरी वह प्रथम रचना, जिसका शीर्षक सब्र करो है, इस प्रकार है:
सब्र करो
सब्र करो अरु प्रेम से बोलो,
दुःख का नाम कभी मत लो।
सत्य बोलकर मृषा मिटाओ,
कोरी बातें त्याग दो।।
राम - राम का नाम रटो,
अरु सत्य वचन पालन कर्ता।
शंका न हृदय पर रहती है,
सारा चिंता - सागर हरता।।
गाली के बदले में गाली ,
कभी किसी को मत देना।
मधुर मुख से मीठा बोलो,
कड़वी बातें मत कहना।।
अपना धर्म हमारा ही है ,
पाप निधि दानव भावें।
मानव का कर्तव्य एकता ,
प्रेम - भाव जग में छावें।।
सब्र करो अरु प्रेम से बोलो,
दुःख का नाम कभी मत लो।
सत्य बोलकर मृषा मिटा दो,
कोरी बातें त्याग दो।।
रचना काल:1963 ई0
इस रचना के बाद लिखी गई कुछ प्रमुख रचनाओं के शीर्षक इस प्रकार हैं: हमारा राष्ट्र ध्वज, फिर उमड़ श्याम बादल आए, अक्षर पद्य (मात्रा विहीन रचना), प्रवीण प्रहरी, भारत माता की वंदना, दीप प्रभा, एकता और मानव, कहता वसंत प्रिय पावस से, अकवि रचित अकविता ,वर्षा विहार, वह पावस की रात, हे प्रभु प्रकृति कितनी निरुपम, नव नील अम्बर, भगवान श्रीकृष्ण का विश्वरूप दर्शन(गीता के 11वें अध्याय का काव्यानुवाद), भगवान बुद्ध ,101 विष्णु नाम स्तुति, ऋतुराज करें हम अभिनंदन, हमारा अन्नदाता, प्रगति शल्य (अतुकांत कविता), माँ भारती आदि।
इस प्रकार माँ सरस्वती के कृपा कर की रश्मियों से सज्जित मेरी काव्य रचना यात्रा का श्रीगणेश हो गया।जो कभी रुकता ,थमता आगे बढ़ता रहा। 1969 से काव्य रचनाएँ ,कहानियां , एकांकी , शोध लेख देश की प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। मेरा प्रथम शोध लेख राजकीय इंटरमीडिएट कालेज , आगरा की वार्षिक पत्रिका में 1969 में प्रकाशित हुआ।लेख का शीर्षक था: पहिया या वृत्ताकार ।उस समय मैं हाई स्कूल का विज्ञान वर्ग का विद्यार्थी था। तब से प्रकाशन का सिलसिला निरन्तर चलता रहा। ईश्वर ने मुझे जिस कार्य के लिए संसार में भेजा है , उसे निष्ठापूर्वक करना अपना नैतिक दायित्व मानता हूँ। शायद इसी के द्वारा मानवता का हित मेरे द्वारा हो सके , तो मैं अपने मानव जीवन को सार्थक समझूँगा।
💐 शुभमस्तु!
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