रविवार, 14 जून 2020

दंत-आभा [दोहा]


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✍ शब्दकार©
🦢 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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अस्थिहीन सीधी नरम,मध्य जीभ का राज।
खड़े पंक्ति में दाँत सब,कर्ता का शुभ साज।।

बत्तीसी कहते जिसे,सभी जीभ के मीत।
देते भोजन उदर को,तन की सुंदर नीत।।

दाँत न आते जन्म से,बाहर हुआ विकास।
बारह वर्षों में विदा ,पुनः अंकुरण  आस।।

खट्टा मीठा  चटपटा,  सबका उपसंहार।
चाकी - सी मुख में चले,दंत- देह उपकार।।

कोई  दाँत  दिखा  रहा,एक निपोरे दाँत।
एक  दाँत  खट्टे करे,ऐंठ उदर की आंत।।

गुटका खैनी जो भखें,उन्हें अप्रिय जी जान
दाँत  टूट बाहर गिरें, गिरती तन की शान।।

दाँत जीभ मिलकर करें, भोजन से संघर्ष।
आँत पेट को तब मिले,मन चाहा सुख हर्ष।

मुखमंडल को रूप दें,   सुंदर सुघर  स्वरूप।
दाँत बिना मुख पोपला,पिचकें गाल कुरूप।।

दाँत विदा तो कांति भी,विदा साथ ही साथ।
करें स्वच्छता नित्य ही,रहे न कुछ भी हाथ।।

दातुन मंजन के लिए,होता दंत  विधान।
बिना दाँत बेदान्त मुख,देह गेह की  शान।।

माजूफल पाँचों नमक,सँग हो सागरफेन।
दंतकांति मुक्ता सदृश,स्वस्थ प्रकृति की देन।

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