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✍ शब्दकार ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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वीरबहूटी कहलाती हूँ।
छूते ही शरमा जाती हूँ।।
लाल रंग मखमल-सी काया।
जिसने देखा रूप सुहाया।।
रेंग - रेंग कर मैं जाती हूँ।
वीरबहूटी कहलाती हूँ।।
जब अषाढ़ में बादल घिरते।
धरती पर जल वर्षा करते।।
भूतल के ऊपर आती हूँ।
वीरबहूटी कहलाती हूँ।।
बच्चे मुझे प्यार करते हैं।
छू -छू कर मुझसे डरते हैं।।
तब मैं सिमट सिकुड़ जाती हूँ
वीरबहूटी कहलाती हूँ।।
हल के कूँड़ और मेड़ों पर।
चढ़ती नहीं कभी पेड़ों पर।।
वर्षा में ही दिख पाती हूँ।
वीरबहूटी कहलाती हूँ।।
अब मेरे दर्शन हैं भारी।
कीटनाशकों ने मैं मारी।।
पैरों तले दली जाती हूँ।
वीरबहूटी कहलाती हूँ।।
नहीं केंचुआ और गिजाई।
जब से छिड़की तेज दवाई।।
सुख समृद्धि मैं ही लाती हूँ।
बीरबहूटी कहलाती हूँ।।
कृषकों को कोई समझाए।
गोबर की ही खाद लगाएं।।
'शुभम' धरा की मैं थाती हूँ।
वीरबहूटी कहलाती हूँ।।
💐 शुभमस्तु !
06.06.2020 ◆2.15अपराह्न।
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