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✍ शब्दकार©
☘️ डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम'
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मैं छतपंखा निशिदिन चलता।
चलना मुझको कभी न खलता।।
गोल घूमतीं तीन पंखुड़ी।
पुष्पनाल - सी सभी वे जुड़ी।
नहीं होड़ करने को जलता।
मैं छतपंखा निशिदिन चलता।
शीतल हवा सभी को देता।
ताप देह की सब हर लेता।
बटन दबाते ही मैं हिलता।
मैं छतपंखा निशिदिन चलता।
मुझे चाहते सब नर -नारी।
है मौसम की महिमा भारी।
चलकर सुकूँ मुझे भी मिलता।
मैं छतपंखा निशिदिन चलता।
हाथ तुम्हारे चाल हमारी।
पंखुड़ियाँ तब दिखे न सारी।
किन्तु नहीं मैं तुमको छलता।
मैं छतपंखा निशिदिन चलता।
मुझको तो बस चलना आता।
पवन - देवता से सब लाता।
'शुभम' परिश्रम मेरा फलता।
मैं छतपंखा निशिदिन चलता।
💐 शुभमस्तु !
02.06.2020◆6.45अप.
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