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✍️ शब्दकार ©
🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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दो बालक सिकुड़े हुए, ढँके टाट से शीश।
बैठे भूखे अन्न से, कृपा करें जगदीश।।
सिर पर है छत भी नहीं, तन पर जर्जर वेश।
उदासीन मन देखते, उलझ रहे सिर केश।।
निर्धनता अभिशाप है, दे न किसी को ईश।
मिलें उदर को रोटियाँ,झुके न नर का शीश।
मर जाना स्वीकार है, पर न माँगते भीख।
स्वाभिमान से जी सकें,यही मिली है सीख।।
बोरी या तिरपाल से,ढँकता निर्धन शीश।
फैलाए जाते नहीं,हाथ कभी जगदीश।।
दीन- हीन बालक युगल, बैठे चिंतित मीत।
इनको भोजन चाहिए,हार न इनकी जीत।।
दे ईश्वर यदि जन्म तो, दे रोटी भरपेट।
तन ढँकने को वस्त्र भी,बनें न नर आखेट।।
नियति नहीं जिनकी सही,उन्हें न आए चैन।
रहने को घर भी नहीं, कटे न दिन या रैन।।
योनि मिली नर देह की,पशुवत जीवन चक्र।
राह नहीं सीधी कहीं,जीवन - रेखा वक्र।।
मात- पिता रहते दुखी,पाकर वह संतान।
जिनके पाने से नहीं, मिलती शांति महान।।
कर्म - दंड नर भोगते, निर्धन बनते लोग।
घेरे ही उनको रहें, सदा आपदा रोग।।
🪴शुभमस्तु!
१९.०७.२०२२◆ १.५५पतनम मार्तण्डस्य।
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